Thursday, December 25, 2014

#ॐ#।। हमारे आर्ष ग्रन्थ !!! भीम सैन श्रीधर जी द्वारा मिली पोस्ट :- वेद – वेद हमारे धर्मग्रन्थ हैं । वेद संसार के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं । वेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा – इन चार ऋषियों को एक साथ दिया था । वेद मानवमात्र के लिए हैं । वेद चार हैं ---- १. ऋग्वेद – इसमें तिनके से लेकर ब्रह्म – पर्यन्त सब पदार्थो का ज्ञान दिया हुआ है । इसमें १०,५२२ मन्त्र हैं । मण्डल – १० सूक्त -१०२८ ऋचाऐं – १०५८९ हैं । शाखा – २१ पद – २५३८२६ अक्षर - ४३२००० ब्रह्मण - ऐतरेय उपवेद – आयुर्वेद २. यजुर्वेद – इसमें कर्मकाण्ड है । इसमें अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन है । इसमें १,९७५ मन्त्र हैं । अध्याय – ४० कण्डिकाएं और मन्त्र -- १,९७५ ब्रह्मण – शतपथ उपवेद - धनुर्वेद ३. सामवेद – यह उपासना का वेद है । इसमें १,८७५ मन्त्र हैं । ब्रह्मण – ताण्ड्य या छान्दोग्य ब्रह्मण । उपवेद - गान्धर्ववेद ४. अथर्ववेद – इसमें मुख्यतः विज्ञान – परक मन्त्र हैं । इसमें ५,९७७ मन्त्र हैं । काण्ड - २० सूक्त – ७३१ ब्रह्मण – गोपथ उपवेद - अर्थवेद उपवेद – चारों वेदों के चार उपवेद हैं ।  क्रमशः – आयुर्वेद , धनुर्वेद , गान्धर्ववेद और अर्थवेद । उपनिषद – अब तक प्रकाशित होने वाले उपनिषदों की कुल संख्या २२३ है , परन्तु प्रामाणिक उपनिषद ११ ही हैं । इनके नाम हैं --- ईश , केन , कठ , प्रश्न , मुण्डक , माण्डूक्य , तैत्तिरीय , ऐतरेय , छान्दोग्य , बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर । ब्राह्मणग्रन्थ – इनमें वेदों की व्याख्या है। चारों वेदों के प्रमुख ब्राह्मणग्रन्थ ये हैं --- ऐतरेय , शतपथ , ताण्ड्य और गोपथ । दर्शनशास्त्र – आस्तिक दर्शन छह हैं – न्याय , वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और वेदान्त। स्मृतियां – स्मृतियों की संख्या ६५ है , परन्तु प्रक्षिप्त श्लोकों को छोङकर मनुस्मृति ही सबसे अधिक प्रमाणिक है । इनके अतिरिक्त आरण्यक , धर्मसूत्र , गृह्यसूत्र , अर्थशास्त्र , विमानशास्त्र आदि अनेक ग्रन्थ हैं । वेदों के छह वेदांग – शिक्षा ,कल्प , निरूक्त , व्याकरण , ज्योतिष और छन्द । वेदों के छह उपांग – जिन को छः दर्शन या छः शास्त्र भी कहते हैं । १. कपिल का सांख्य २. गौतम का न्याय ३. पतंजलि का योग ४. कणाद का वैशेषिक ५. व्यास का वेदान्त ६. जैमिनि का मीमांसा इस सन्देश को जन जन तक पहुचाएं।

Tuesday, December 23, 2014

सुमंगलम्.. सनातनी बंधु,.  *lll जय श्री राम lll* सीताराम चरित अति पावन, मधुर सरस अरु अति मनभावन ll श्री राम आपको वैभव, ऐश्वर्य, उन्नति, प्रगति, आदर्श, प्रसिद्धि और समृद्धि के साथ आजीवन जीवन पथ पर गतिमान रखे ll lll श्री राम जय राम जय जय राम lll *चलो आज आपको भगवान श्री राम जी के वंश के बारे में बताता हूं*।। ब्रह्माजी की उन्चालिसवी पीढ़ी में भगवाम श्रीराम का जन्म हुआ था ।। हिंदू धर्म में श्री राम को श्रीहरि विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे - इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त,करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। श्री राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था और जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे। मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगरतक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी। रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है .......... १ - ब्रह्माजी से मरीचि हुए। २ - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। ३ - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे। ४ - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। ५ - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की। ६ - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। ७ - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। ८ - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए। ९ - बाण के पुत्र अनरण्य हुए। १०- अनरण्य से पृथु हुए ११- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। १२- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। १३- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। १४- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए। १५- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। १६- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। १७- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए। १८- भरत के पुत्र असित हुए। १९- असित के पुत्र सगर हुए। २०- सगर के पुत्र का नाम असमंज था। २१- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए। २२- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। २३- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे। २४- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया,तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है। २५- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। २६- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे। २७- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। २८- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। २९- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए। ३०- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। ३१- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे। ३२- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। ३३- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। ३४- नहुष के पुत्र ययाति हुए। ३५- ययाति के पुत्र नाभाग हुए। ३६- नाभाग के पुत्र का नाम अज था। ३७- अज के पुत्र दशरथ हुए। ३८- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए। इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ..... श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम्। नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम। कंदर्प अगणित अमित छवी नव नील नीरज सुन्दरम। पट्पीत मानहु तडित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरम। भजु दीन बंधू दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम। रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम । सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभुषणं। आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर - धुषणं। इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम। मम हृदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम। मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सावरों। करुना निधान सुजान सिलू सनेहू जानत रावरो। एही भाँती गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषी अली। तुलसी भवानी पूजी पूनी पूनी मुदित मन मन्दिर चली। जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाए कहीं। मंजुल मंगल मूल बाम अंग फ़र्क़न लगे। जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे । इसीलिये कहते हैं श्री राम से बड़ा राम का नाम नोट : - इस मेसेज को अपने बच्चों को बार बार पढ़वाये और उन्हे हिन्दू धर्म की महता के बारे में समझायें ।। बोलिये सियावर रामचन्द्र की जय अयोध्या धाम की जय गौमाता की जय बृजधाम सुप्रभात,शुभ दिवश/

Sunday, December 21, 2014

llसार्थशिवताण्डवस्तोत्रम्ll ||श्रीगणेशाय नमः || जटा टवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले, गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् | डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१|| जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी, विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि | धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२|| धरा धरेन्द्र नंदिनी विलास बन्धु बन्धुरस् फुरद् दिगन्त सन्तति प्रमोद मानमानसे | कृपा कटाक्ष धोरणी निरुद्ध दुर्धरापदि क्वचिद् दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ||३|| लता भुजङ्ग पिङ्गलस् फुरत्फणा मणिप्रभा कदम्ब कुङ्कुमद्रवप् रलिप्तदिग्व धूमुखे | मदान्ध सिन्धुरस् फुरत् त्वगुत्तरीयमे दुरे मनो विनोद मद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ||४|| सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर प्रसून धूलिधोरणी विधूस राङ्घ्रि पीठभूः | भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धुशेखरः ||५|| ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम् | सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोज टालमस्तु नः ||६|| कराल भाल पट्टिका धगद् धगद् धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके | धरा धरेन्द्र नन्दिनी कुचाग्र चित्रपत्रक प्रकल्प नैक शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम |||७|| नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्- कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः | निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्ति सिन्धुरः कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधरः ||८|| प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा- वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् | स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छि दांध कच्छिदं तमंत कच्छिदं भजे ||९|| अखर्व सर्व मङ्गला कला कदंब मञ्जरी रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् | स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्त कान्ध कान्त कं तमन्त कान्त कं भजे ||१०|| जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस – द्विनिर्ग मत् क्रमस्फुरत् कराल भाल हव्यवाट् | धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ||११|| स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्- – गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः | तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे ||१२|| कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् | विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ||१३|| इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् | हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४|| पूजा वसान समये दशवक्त्र गीतं यः शंभु पूजन परं पठति प्रदोषे | तस्य स्थिरां रथगजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः ||१५|| इति श्रीरावण- कृतम् शिव- ताण्डव- स्तोत्रम् सम्पूर्णम्...........!! जिन शिव जी की सघन जटारूप वन से प्रवाहित हो गंगा जी की धारायं उनके कंठ को प्रक्षालित क होती हैं, जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्यान करें ........ जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अंनुराग प्रतिक्षण बढता रहे। ........ जो पर्वतराजसुता(पार्वती जी) केअ विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आन्दित रहे। ....... मैं उन शिवजी की भक्ति में आन्दित रहूँ जो सभी प्राणियों की के आधार एवं रक्षक हैं, जिनके जाटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समुहरूपकेसर के कातिं से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और जो गजचर्म से विभुषित हैं। ....... जिन शिव जी का चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों के धूल से रंजित हैं (जिन्हे देवतागण अपने सर के पुष्प अर्पन करते हैं), जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें। ...... जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभि देवों द्वारा पुज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्दी प्रदान करें। ....... जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर है ( यहाँ पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो। ...... जिनका कण्ठ नवीन मेंघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के सामान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभि प्रकार की सम्पनता प्रदान करें। ....... जिनका कण्ठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभुषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खो6 के काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यू को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ ! ........ जो कल्यानमय, अविनाशि, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ। ...... अतयंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढी हूई प्रचंण अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं। ....... कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टूकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ। ...... कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा। ........ इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढने या श्रवण करने मात्र से प्राणि पवित्र हो, परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है। ....... प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है। ....... जयति पुण्य सनातन संस्कृति! जयति पुण्य भारत भूमि ! सदा सुमंगल ! वन्देमातरम,,,जय श्री राम !!  ╭╰╯╮┊┊┊┊╭╰╯╮┊┊ हर हर महादेव ... _/\_ ...जय शिव शंकर !! ┗╯╰┛┊┊┊┊┗╯╰┛┊┊◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙◙

सुमंगलम्.. सनातनी बंधु,.  *lll जय श्री राम lll* सीताराम चरित अति पावन, मधुर सरस अरु अति मनभावन ll श्री राम आपको वैभव, ऐश्वर्य, उन्नति, प्रगति, आदर्श, प्रसिद्धि और समृद्धि के साथ आजीवन जीवन पथ पर गतिमान रखे ll lll श्री राम जय राम जय जय राम lll *चलो आज आपको भगवान श्री राम जी के वंश के बारे में बताता हूं*।। ब्रह्माजी की उन्चालिसवी पीढ़ी में भगवाम श्रीराम का जन्म हुआ था ।। हिंदू धर्म में श्री राम को श्रीहरि विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे - इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त,करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। श्री राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था और जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे। मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगरतक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी। रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है .......... १ - ब्रह्माजी से मरीचि हुए। २ - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। ३ - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे। ४ - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। ५ - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की। ६ - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। ७ - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। ८ - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए। ९ - बाण के पुत्र अनरण्य हुए। १०- अनरण्य से पृथु हुए ११- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। १२- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। १३- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। १४- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए। १५- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। १६- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। १७- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए। १८- भरत के पुत्र असित हुए। १९- असित के पुत्र सगर हुए। २०- सगर के पुत्र का नाम असमंज था। २१- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए। २२- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। २३- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे। २४- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया,तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है। २५- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। २६- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे। २७- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। २८- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। २९- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए। ३०- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। ३१- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे। ३२- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। ३३- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। ३४- नहुष के पुत्र ययाति हुए। ३५- ययाति के पुत्र नाभाग हुए। ३६- नाभाग के पुत्र का नाम अज था। ३७- अज के पुत्र दशरथ हुए। ३८- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए। इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ..... श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम्। नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम। कंदर्प अगणित अमित छवी नव नील नीरज सुन्दरम। पट्पीत मानहु तडित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरम। भजु दीन बंधू दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम। रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम । सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभुषणं। आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर - धुषणं। इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम। मम हृदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम। मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सावरों। करुना निधान सुजान सिलू सनेहू जानत रावरो। एही भाँती गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषी अली। तुलसी भवानी पूजी पूनी पूनी मुदित मन मन्दिर चली। जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाए कहीं। मंजुल मंगल मूल बाम अंग फ़र्क़न लगे। जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे । इसीलिये कहते हैं श्री राम से बड़ा राम का नाम नोट : - इस मेसेज को अपने बच्चों को बार बार पढ़वाये और उन्हे हिन्दू धर्म की महता के बारे में समझायें ।। बोलिये सियावर रामचन्द्र की जय अयोध्या धाम की जय गौमाता की जय बृजधाम सुप्रभात,शुभ दिवश/शुभ दोपहरी/शुभ संध्या/ शुभ रात्री की मंगलकामनाओं के साथ,.

Thursday, December 18, 2014

बीज मंत्र की महिमा (Beej Mantra) मंत्र शास्त्र में बीज मंत्रों का विशेष स्थान है। मंत्रों में भी इन्हें शिरोमणि माना जाता है क्योंकि जिस प्रकार बीज से पौधों और वृक्षों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार बीज मंत्रों के जप से भक्तों को दैवीय ऊर्जा मिलती है। ऐसा नहीं है कि हर देवी-देवता के लिए एक ही बीज मंत्र का उल्लेख शास्त्रों में किया गया है। बल्कि अलग-अलग देवी-देवता के लिए अलग बीज मंत्र हैं।  “ऐं” सरस्वती बीज । यह मां सरस्वती का बीज मंत्र है, इसे वाग् बीज भी कहते हैं। जब बौद्धिक कार्यों में सफलता की कामना हो, तो यह मंत्र उपयोगी होता है। जब विद्या, ज्ञान व वाक् सिद्धि की कामना हो, तो श्वेत आसान पर पूर्वाभिमुख बैठकर स्फटिक की माला से नित्य इस बीज मंत्र का एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।  “ह्रीं” भुवनेश्वरी बीज । यह मां भुवनेश्वरी का बीज मंत्र है। इसे माया बीज कहते हैं। जब शक्ति, सुरक्षा, पराक्रम, लक्ष्मी व देवी कृपा की प्राप्ति हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।  “क्लीं” काम बीज । यह कामदेव, कृष्ण व काली इन तीनों का बीज मंत्र है। जब सर्व कार्य सिद्धि व सौंदर्य प्राप्ति की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।  “श्रीं” लक्ष्मी बीज । यह मां लक्ष्मी का बीज मंत्र है। जब धन, संपत्ति, सुख, समृद्धि व ऐश्वर्य की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पश्चिम मुख होकर कमलगट्टे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।  "ह्रौं" शिव बीज । यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।  "गं" गणेश बीज । यह गणपति का बीज मंत्र है। विघ्नों को दूर करने तथा धन-संपदा की प्राप्ति के लिए पीले रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।  "श्रौं" नृसिंह बीज । यह भगवान नृसिंह का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, सर्व रक्षा बल, पराक्रम व आत्मविश्वास की वृद्धि के लिए लाल रंग के आसन पर दक्षिणाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या मूंगे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।  “क्रीं” काली बीज । यह काली का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, पराक्रम, सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ आदि कामनाओं की पूर्ति के लिए लाल रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।  “दं” विष्णु बीज । यह भगवान विष्णु का बीज मंत्र है। धन, संपत्ति, सुरक्षा, दांपत्य सुख, मोक्ष व विजय की कामना हेतु पीले रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर तुलसी की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

श्री दुर्गा के निम्न मंत्र धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम है। ऐसे ही स्रोत एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत पारायण से इच्छित मनोकामना की पूर्ति होती है। *********************** ब्रह्माजी ने मनुष्यों कि रक्षा हेतु मार्कण्डेय पुराण में कुछ परमगोपनीय साधन-कल्याणकारी देवी कवच एवं परम पवित्र उपायो का उल्लेख किया हैं, जिस्से साधारण से साधारण व्यक्ति जिसे माँ दुर्गा पूजा अर्चना के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं होने पर भी विशेष लाभ प्राप्त कर सकते हैं। माँ दुर्गा के इन मंत्रो का जाप प्रति दिन भी कर सकते हैं। पर नवरात्र में जाप करने से शीघ्र प्रभाव देखा गया हैं। सर्व प्रकार कि बाधा मुक्ति हेतु: सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥ अर्थातः- मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा- इसमें जरा भी संदेह नहीं है। किसी भी प्रकार के संकट या बाधा कि आशंका होने पर इस मंत्र का प्रयोग करें। उक्त मंत्र का श्रद्धा से जाप करने से व्यक्ति सभी प्रकार की बाधा से मुक्त होकर धन-धान्य एवं पुत्र की प्राप्ति होती हैं। बाधा शान्ति हेतु: सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥ अर्थातः- सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो। विपत्ति नाश हेतु: शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥ अर्थातः- शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है। पाप नाश हेतु: हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्। सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥ अर्थातः- देवि! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मो से रक्षा करती है। विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति हेतु: करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः। अर्थातः- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले। भय नाश हेतु: सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥ एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्। पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥ ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्। त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥ अर्थातः- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है। सर्व प्रकार के कल्याण हेतु: सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥ अर्थातः- नारायणी! आप सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। आपको नमस्कार हैं। व्यक्ति दु:ख, दरिद्रता और भय से परेशान हो चाहकर भी या परीश्रम के उपरांत भी सफलता प्राप्त नहीं होरही हों तो उपरोक्त मंत्र का प्रयोग करें। सुलक्षणा पत्‍‌नी की प्राप्ति हेतु: पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥ अर्थातः- मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्‍‌नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो। शक्ति प्राप्ति हेतु: सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि। गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥ अर्थातः- तुम सृष्टि, पालन और संहार करने वाली शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है। रक्षा प्राप्ति हेतु: शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥ अर्थातः- देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें। देह को सुरक्षित रखने हेतु एवं उसे किसी भी प्रकार कि चोट या हानी या किसी भी प्रकार के अस्त्र-सस्त्र से सुरक्षित रखने हेतु इस मंत्र का श्रद्धा से नियम पूर्वक जाप करें। विद्या प्राप्ति एवं मातृभाव हेतु: विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु। त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्तिः॥ अर्थातः- देवि! विश्वकि सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे हो। समस्त प्रकार कि विद्याओं की प्राप्ति हेतु और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये इस मंत्रका पाठ करें। प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु: प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि। त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥ अर्थातः- विश्व की पीडा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पडे हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियों की पूजनीय परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो। आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति हेतु: देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ अर्थातः- मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि मेरे शत्रुओं का नाश करो। महामारी नाश हेतु: जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥ अर्थातः- जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो। रोग नाश हेतु: रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥ अर्थातः- देवि! तुमहारे प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं। विश्व की रक्षा हेतु: या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी: पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:। श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥ अर्थातः- जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये। विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश हेतु: देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य। प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥ अर्थातः- शरणागत की पीडा दूर करनेवाली देवि! हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो। विश्व के पाप-ताप निवारण हेतु: देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्य:। पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥ अर्थातः- देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओं के भय से बचाओ। सम्पूर्ण जगत् का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बडे-बडे उपद्रवों को शीघ्र दूर करो। विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने हेतु: यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तु मलं बलं च। सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥ अर्थातः- जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें। सामूहिक कल्याण हेतु: देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्ति समूहमूत्र्या। तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:॥ अर्थातः- सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगों का कल्याण करें। कैसे करें मंत्र जाप :- नवरात्रि के प्रतिपदा के दिन संकल्प लेकर प्रातःकाल स्नान करके पूर्व या उत्तर दिशा कि और मुख करके दुर्गा कि मूर्ति या चित्र की पंचोपचार या दक्षोपचार या षोड्षोपचार से पूजा करें। शुद्ध-पवित्र आसन ग्रहण कर रुद्राक्ष, स्फटिक, तुलसी या चंदन कि माला से मंत्र का जाप १,५,७,११ माला जाप पूर्ण कर अपने कार्य उद्देश्य कि पूर्ति हेतु मां से प्राथना करें। संपूर्ण नवरात्रि में जाप करने से मनोवांच्छित कामना अवश्य पूरी होती हैं। उपरोक्त मंत्र के विधि-विधान के अनुसार जाप करने से मां कि कृपा से व्यक्ति को पाप और कष्टों से छुटकारा मिलता हैं और मोक्ष प्राप्ति का मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सुगम प्रतित होता हैं।

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् । लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ ****** **भगवान विष्णु के 24 अवतार, 23 हो चुके है 24 वा (कल्कि अवतार) है बाकी **ऐसा कहा जाता है कि जब जब पृथ्वी पर कोई संकट आता है तो भगवान अवतार लेकर उस संकट को दूर करते है। भगवान शिव और भगवान विष्णु ने अनेको बार पृथ्वी पर अवतार लिया है।  भगवान शिव के 19 अवतारों के बारे में हम आपको बता चुके है आज हम आपको भगवान विष्णु के 24 अवतारों के बारे में बताएँगे।  इन में से 23 अवतार अब तक पृथ्वी पर अवतरित हो चुके है जबकि 24 वा अवतार 'कल्कि अवतार' के रूप में होना बाकी है। इन 24 अवतार में से 10 अवतार विष्णु जी के मुख्य अवतार माने जाते है। यह है मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार, नृसिंह अवतार, वामन अवतार, परशुराम अवतार, राम अवतार. कृष्ण अवतार, बुद्ध अवतार, कल्कि अवतार। 1- श्री सनकादि मुनि (Shri Sankadi Muni) : धर्म ग्रंथों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं। 2- वराह अवतार (Varaha Avtar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने दूसरा अवतार वराह रूप में लिया था। वराह अवतार से जुड़ी कथा इस प्रकार है- पुरातन समय में दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया तब ब्रह्मा की नाक से भगवान विष्णु वराह रूप में प्रकट हुए। भगवान विष्णु के इस रूप को देखकर सभी देवताओं व ऋषि-मुनियों ने उनकी स्तुति की। सबके आग्रह पर भगवान वराह ने पृथ्वी को ढूंढना प्रारंभ किया। अपनी थूथनी की सहायता से उन्होंने पृथ्वी का पता लगा लिया और समुद्र के अंदर जाकर अपने दांतों पर रखकर वे पृथ्वी को बाहर ले आए।  जब हिरण्याक्ष दैत्य ने यह देखा तो उसने भगवान विष्णु के वराह रूप को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। अंत में भगवान वराह ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। इसके बाद भगवान वराह ने अपने खुरों से जल को स्तंभित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। 3- नारद अवतार (Narad Avtar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार देवर्षि नारद भी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से देवर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में देवर्षि नारद को भगवान का मन भी कहा गया है।  श्रीमद्भागवतगीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है- देवर्षीणाम्चनारद:। अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं। 4- नर-नारायण (Nar-Narayan Avtar) : सृष्टि के आरंभ में भगवान विष्णु ने धर्म की स्थापना के लिए दो रूपों में अवतार लिया। इस अवतार में वे अपने मस्तक पर जटा धारण किए हुए थे। उनके हाथों में हंस, चरणों में चक्र एवं वक्ष:स्थल में श्रीवत्स के चिन्ह थे। उनका संपूर्ण वेष तपस्वियों के समान था। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने नर-नारायण के रूप में यह अवतार लिया था। 5- कपिल मुनि ( Kapil Avtar) : भगवान विष्णु ने पांचवा अवतार कपिल मुनि के रूप में लिया। इनके पिता का नाम महर्षि कर्दम व माता का नाम देवहूति था। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह के शरीर त्याग के समय वेदज्ञ व्यास आदि ऋषियों के साथ भगवा कपिल भी वहां उपस्थित थे। भगवान कपिल के क्रोध से ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गए थे। भगवान कपिल सांख्य दर्शन के प्रवर्तक हैं। कपिल मुनि भागवत धर्म के प्रमुख बारह आचार्यों में से एक हैं। 6- दत्तात्रेय अवतार (Dattatraya Avtar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है- एक बार माता लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती को अपने पातिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान ने इनका अंहकार नष्ट करने के लिए लीला रची। उसके अनुसार एक दिन नारदजी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों को बारी-बारी जाकर कहा कि ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूइया के सामने आपका सतीत्व कुछ भी नहीं। तीनों देवियों ने यह बात अपने स्वामियों को बताई और उनसे कहा कि वे अनुसूइया के पातिव्रत्य की परीक्षा लें।  तब भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा साधु वेश बनाकर अत्रि मुनि के आश्रम आए। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। तीनों ने देवी अनुसूइया से भिक्षा मांगी मगर यह भी कहा कि आपको निर्वस्त्र होकर हमें भिक्षा देनी होगी। अनुसूइया पहले तो यह सुनकर चौंक गई, लेकिन फिर साधुओं का अपमान न हो इस डर से उन्होंने अपने पति का स्मरण किया और बोला कि यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ:-छ: मास के शिशु हो जाएं।  ऐसा बोलते ही त्रिदेव शिशु होकर रोने लगे। तब अनुसूइया ने माता बनकर उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और पालने में झूलाने लगीं। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई। तीनों देवियां अनुसूइया के पास आईं और क्षमा मांगी। तब देवी अनुसूइया ने त्रिदेव को अपने पूर्व रूप में कर दिया। प्रसन्न होकर त्रिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि हम तीनों अपने अंश से तुम्हारे गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ। 7-  यज्ञ ( Yagya Avatar) : भगवान विष्णु के सातवे अवतार का नाम यज्ञ है। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान यज्ञ का जन्म स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ था। स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा के गर्भ से आकूति का जन्म हुआ। वे रूचि प्रजापति की पत्नी हुई। इन्हीं आकूति के यहां भगवान विष्णु यज्ञ नाम से अवतरित हुए। भगवान यज्ञ के उनकी धर्मपत्नी दक्षिणा से अत्यंत तेजस्वी बारह पुत्र उत्पन्न हुए। वे ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में याम नामक बारह देवता कहलाए। 8- भगवान ऋषभदेव (Rishabh Avtar) : भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में आठवा अवतार लिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार महाराज नाभि की कोई संतान नहीं थी। इस कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी मेरुदेवी के साथ पुत्र की कामना से यज्ञ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा।  वरदान स्वरूप कुछ समय बाद भगवान विष्णु महाराज नाभि के यहां पुत्र रूप में जन्मे। पुत्र के अत्यंत सुंदर सुगठित शरीर, कीर्ति, तेल, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों को देखकर महाराज नाभि ने उसका नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा। 9- आदिराज पृथु (Prithu Avtar) : भगवान विष्णु के एक अवतार का नाम आदिराज पृथु है। धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वायम्भुव मनु के वंश में अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसिक पुत्री सुनीथा के साथ हुआ। उनके यहां वेन नामक पुत्र हुआ। उसने भगवान को मानने से इंकार कर दिया और स्वयं की पूजा करने के लिए कहा।  तब महर्षियों ने मंत्र पूत कुशों से उसका वध कर दिया। तब महर्षियों ने पुत्रहीन राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिससे पृथु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। पृथु के दाहिने हाथ में चक्र और चरणों में कमल का चिह्न देखकर ऋषियों ने बताया कि पृथु के वेष में स्वयं श्रीहरि का अंश अवतरित हुआ है। 10- मत्स्य अवतार (Matsya Avtar) : पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने सृष्टि को प्रलय से बचाने के लिए मत्स्यावतार लिया था। इसकी कथा इस प्रकार है- कृतयुग के आदि में राजा सत्यव्रत हुए। राजा सत्यव्रत एक दिन नदी में स्नान कर जलांजलि दे रहे थे। अचानक उनकी अंजलि में एक छोटी सी मछली आई। उन्होंने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं, लेकिन उस मछली ने बोला- आप मुझे सागर में मत डालिए अन्यथा बड़ी मछलियां मुझे खा जाएंगी। तब राजा सत्यव्रत ने मछली को अपने कमंडल में रख लिया। मछली और बड़ी हो गई तो राजा ने उसे अपने सरोवर में रखा, तब देखते ही देखते मछली और बड़ी हो गई।  राजा को समझ आ गया कि यह कोई साधारण जीव नहीं है। राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की। राजा की प्रार्थना सुन साक्षात चारभुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और उन्होंने कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है। भगवान ने सत्यव्रत से कहा- सुनो राजा सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगी। तब मेरी प्रेरणा से एक विशाल नाव तुम्हारे पास आएगी। तुम सप्त ऋषियों, औषधियों, बीजों व प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को लेकर उसमें बैठ जाना, जब तुम्हारी नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं मत्स्य के रूप में तुम्हारे पास आऊंगा।  उस समय तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग से बांध देना। उस समय प्रश्न पूछने पर मैं तुम्हें उत्तर दूंगा, जिससे मेरी महिमा जो परब्रह्म नाम से विख्यात है, तुम्हारे ह्रदय में प्रकट हो जाएगी। तब समय आने पर मत्स्यरूपधारी भगवान विष्णु ने राजा सत्यव्रत को तत्वज्ञान का उपदेश दिया, जो मत्स्यपुराण नाम से प्रसिद्ध है। 11- कूर्म अवतार (Kurm Avtar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुए) का अवतार लेकर समुद्र मंथन में सहायता की थी। भगवान विष्णु के कूर्म अवतार को कच्छप अवतार भी कहते हैं। इसकी कथा इस प्रकार है- एक बार महर्षि दुर्वासा ने देवताओं के राजा इंद्र को श्राप देकर श्रीहीन कर दिया। इंद्र जब  भगवान विष्णु के पास गए तो उन्होंने समुद्र मंथन करने के लिए कहा। तब इंद्र भगवान विष्णु के कहे अनुसार दैत्यों व देवताओं के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए तैयार हो गए।  समुद्र मंथन करने के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी एवं नागराज वासुकि को नेती बनाया गया। देवताओं और दैत्यों ने अपना मतभेद भुलाकर मंदराचल को उखाड़ा और उसे समुद्र की ओर ले चले, लेकिन वे उसे अधिक दूर तक नहीं ले जा सके। तब भगवान विष्णु ने मंदराचल को समुद्र तट पर रख दिया। देवता और दैत्यों ने मंदराचल को समुद्र में डालकर नागराज वासुकि को नेती बनाया।  किंतु मंदराचल के नीचे कोई आधार नहीं होने के कारण वह समुद्र में डूबने लगा। यह देखकर भगवान विष्णु विशाल कूर्म (कछुए) का रूप धारण कर समुद्र में मंदराचल के आधार बन गए। भगवान कूर्म  की विशाल पीठ पर मंदराचल तेजी से घुमने लगा और इस प्रकार समुद्र मंथन संपन्न हुआ। 12- भगवान धन्वन्तरि (Dhanwantari Avatar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार जब देवताओं व दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उसमें से सबसे पहले भयंकर विष निकला जिसे भगवान शिव ने पी लिया। इसके बाद समुद्र मंथन से उच्चैश्रवा घोड़ा, देवी लक्ष्मी, ऐरावत हाथी, कल्प वृक्ष, अप्सराएं और भी बहुत से रत्न निकले। सबसे अंत में भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। यही धन्वन्तरि भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं। इन्हें औषधियों का स्वामी भी माना गया है। 13- मोहिनी अवतार (Mohini avatar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई।  देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया। भगवान ने मोहिनी रूप में सबको मोहित कर दिया किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ  तथा असुर दूसरी तरफ  बैठ गए।  फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ  देवताओं को ही करा रही थी, जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर देवताओं का भला किया। 14- भगवान नृसिंह (Narsih Avatar) : भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- धर्म ग्रंथों के अनुसार दैत्यों का राजा हिरण्यकशिपु स्वयं को भगवान से भी अधिक बलवान मानता था। उसे मनुष्य, देवता, पक्षी, पशु, न दिन में, न रात में, न धरती पर, न आकाश में, न अस्त्र से, न शस्त्र से मरने का वरदान प्राप्त था। उसके राज में जो भी भगवान विष्णु की पूजा करता था उसको दंड दिया जाता था। उसके पुत्र का नाम प्रह्लाद था। प्रह्लाद बचपन से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। यह बात जब हिरण्यकशिपु का पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी जब प्रह्लाद नहीं माना तो हिरण्यकशिपु ने उसे मृत्युदंड दे दिया।  हर बार भगवान विष्णु के चमत्कार से वह बच गया। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका, जिसे अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था, वह प्रह्लाद को लेकर धधकती हुई अग्नि में बैठ गई। तब भी भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। जब हिरण्यकशिपु स्वयं प्रह्लाद को मारने ही वाला था तब भगवान विष्णु नृसिंह का अवतार लेकर खंबे से प्रकट हुए और उन्होंने अपने नाखूनों से हिरण्यकशिपु का वध कर दिया। 15- वामन अवतार (Vaman Avatar) : सत्ययुग में प्रह्लाद के पौत्र दैत्यराज बलि ने स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। सभी देवता इस विपत्ति से बचने के लिए भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने कहा कि मैं स्वयं देवमाता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होकर तुम्हें स्वर्ग का राज्य दिलाऊंगा। कुछ समय पश्चात भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया।   एक बार जब बलि महान यज्ञ कर रहा था तब भगवान वामन बलि की यज्ञशाला में गए और राजा बलि से तीन पग धरती दान में मांगी। राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य भगवान की लीला समझ गए और उन्होंने बलि को दान देने से मना कर दिया। लेकिन बलि ने फिर भी भगवान वामन को तीन पग धरती दान देने का संकल्प ले लिया। भगवान वामन ने विशाल रूप धारण कर एक पग में धरती और दूसरे पग में स्वर्ग लोक नाप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं बचा तो बलि ने भगवान वामन को अपने सिर पर पग रखने को कहा। बलि के सिर पर पग रखने से वह सुतललोक पहुंच गया। बलि की दानवीरता देखकर भगवान ने उसे सुतललोक का स्वामी भी बना दिया। इस तरह भगवान वामन ने देवताओं की सहायता कर उन्हें स्वर्ग पुन: लौटाया। 16- हयग्रीव अवतार (Hayagreeva Avatar) :  धर्म ग्रंथों के अनुसार एक बार मधु और कैटभ नाम के दो शक्तिशाली राक्षस ब्रह्माजी से वेदों का हरण कर रसातल में पहुंच गए। वेदों का हरण हो जाने से ब्रह्माजी बहुत दु:खी हुए और भगवान विष्णु के पास पहुंचे। तब भगवान ने हयग्रीव अवतार लिया। इस अवतार में भगवान विष्णु की गर्दन और मुख घोड़े के समान थी। तब भगवान हयग्रीव रसातल में पहुंचे और मधु-कैटभ का वध कर वेद पुन: भगवान ब्रह्मा को दे दिए। 17- श्रीहरि अवतार ( Shri Hari Avtar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार प्राचीन समय में त्रिकूट नामक पर्वत की तराई में एक शक्तिशाली गजेंद्र अपनी हथिनियों के साथ रहता था। एक बार वह अपनी हथिनियों के साथ तालाब में स्नान करने गया। वहां एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया और पानी के अंदर खींचने लगा। गजेंद्र और मगरमच्छ का संघर्ष एक हजार साल तक चलता रहा। अंत में गजेंद्र शिथिल पड़ गया और उसने भगवान श्रीहरि का ध्यान किया। गजेंद्र की स्तुति सुनकर भगवान श्रीहरि प्रकट हुए और उन्होंने अपने चक्र से मगरमच्छ का वध कर दिया। भगवान श्रीहरि ने गजेंद्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। 18- परशुराम अवतार (Parshuram Avatar) : हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के  प्रमुख अवतारों में से एक थे। भगवान परशुराम के जन्म के संबंध में दो कथाएं प्रचलित हैं। हरिवंशपुराण के अनुसार उन्हीं में से एक कथा इस प्रकार है- प्राचीन समय में महिष्मती नगरी पर शक्तिशाली हैययवंशी क्षत्रिय कार्तवीर्य अर्जुन(सहस्त्रबाहु) का शासन था। वह बहुत अभिमानी था और अत्याचारी भी। एक बार अग्निदेव ने उससे भोजन कराने का आग्रह किया। तब सहस्त्रबाहु ने घमंड में आकर कहा कि आप जहां से चाहें, भोजन प्राप्त कर सकते हैं, सभी ओर मेरा ही राज है। तब अग्निदेव ने वनों को जलाना शुरु किया। एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे। अग्नि ने उनके आश्रम को भी जला डाला। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने सहस्त्रबाहु को श्राप दिया कि भगवान विष्णु, परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और न सिर्फ सहस्त्रबाहु का नहीं बल्कि समस्त क्षत्रियों का सर्वनाश करेंगे। इस प्रकार भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्रि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया। 19- महर्षि वेदव्यास ( Vyas Avatar) : पुराणों में महर्षि वेदव्यास को भी भगवान विष्णु का ही अंश माना गया है। भगवान व्यास नारायण के कलावतार थे। वे महाज्ञानी महर्षि पराशर के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। उनका जन्म कैवर्तराज की पोष्यपुत्री सत्यवती के गर्भ से यमुना के द्वीप पर हुआ था। उनके शरीर का रंग काला था। इसलिए उनका एक नाम कृष्णद्वैपायन भी था। इन्होंने ही मनुष्यों की आयु और शक्ति को देखते हुए वेदों के विभाग किए। इसलिए इन्हें वेदव्यास भी कहा जाता है। इन्होंने ही महाभारत ग्रंथ की रचना भी की। 20- हंस अवतार (Hans Avatar) : एक बार भगवान ब्रह्मा अपनी सभा में बैठे थे। तभी वहां उनके मानस पुत्र सनकादि पहुंचे और भगवान ब्रह्मा से मनुष्यों के मोक्ष के संबंध में चर्चा करने लगे। तभी वहां भगवान विष्णु महाहंस के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने सनकादि मुनियों के संदेह का निवारण किया। इसके बाद सभी ने भगवान हंस की पूजा की। इसके बाद महाहंसरूपधारी श्रीभगवान अदृश्य होकर अपने पवित्र धाम चले गए। 21- श्रीराम अवतार (Ram avatar) : त्रेतायुग में राक्षसराज रावण का बहुत आतंक था। उससे देवता भी डरते थे। उसके वध के लिए भगवान विष्णु ने राजा दशरथ के यहां माता कौशल्या के गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लिया। इस अवतार में भगवान विष्णु ने अनेक राक्षसों का वध किया और मर्यादा का पालन करते हुए अपना जीवन यापन किया।  पिता के कहने पर वनवास गए। वनवास भोगते समय राक्षसराज रावण उनकी पत्नी सीता का हरण कर ले गया। सीता की खोज में भगवान लंका पहुंचे, वहां भगवान श्रीराम और रावण का घोर युद्ध जिसमें रावण मारा गया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने राम अवतार लेकर देवताओं को भय मुक्त किया।22- श्रीकृष्ण अवतार (Krishna Avatar) : द्वापरयुग में भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण अवतार लेकर अधर्मियों का नाश किया।   भगवान श्रीकृष्ण का जन्म कारागार में हुआ था। इनके पिता का नाम वसुदेव और माता का नाम देवकी था। भगवान श्रीकृष्ण ने इस अवतार में अनेक चमत्कार किए और दुष्टों का सर्वनाश किया।  कंस का वध भी भगवान श्रीकृष्ण ने ही किया। महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथि बने और दुनिया को गीता का ज्ञान दिया। धर्मराज युधिष्ठिर को राजा बना कर धर्म की स्थापना की। भगवान विष्णु का ये अवतार सभी अवतारों में सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। 23- बुद्ध अवतार (Buddha Avatar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार बौद्धधर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी भगवान विष्णु के ही अवतार थे परंतु पुराणों में वर्णित भगवान बुद्धदेव का जन्म गया के समीप कीकट में हुआ बताया गया है और उनके पिता का नाम अजन बताया गया है। यह प्रसंग पुराण वर्णित बुद्धावतार का ही है।  एक समय दैत्यों की शक्ति बहुत बढ़ गई। देवता भी उनके भय से भागने लगे। राज्य की कामना से दैत्यों ने देवराज इंद्र से पूछा कि हमारा साम्राज्य स्थिर रहे, इसका उपाय क्या है। तब इंद्र ने शुद्ध भाव से बताया कि सुस्थिर शासन के लिए यज्ञ एवं वेदविहित आचरण आवश्यक है। तब दैत्य वैदिक आचरण एवं महायज्ञ करने लगे, जिससे उनकी शक्ति और बढऩे लगी। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के हित के लिए बुद्ध का रूप धारण किया। उनके हाथ में मार्जनी थी और वे मार्ग को बुहारते हुए चलते थे।  इस प्रकार भगवान बुद्ध दैत्यों के पास पहुंचे और उन्हें उपदेश दिया कि यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीव हिंसा होती है। यज्ञ की अग्नि से कितने ही प्राणी भस्म हो जाते हैं। भगवान बुद्ध के उपदेश से दैत्य प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ व वैदिक आचरण करना छोड़ दिया। इसके कारण उनकी शक्ति कम हो गई और देवताओं ने उन पर हमला कर अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लिया। 24- कल्कि अवतार (Kalki Avatar) : धर्म ग्रंथों के अनुसार कलयुग में भगवान विष्णु कल्कि रूप में अवतार लेंगे। कल्कि अवतार कलियुग व सतयुग के संधिकाल में होगा। यह अवतार 64 कलाओं से युक्त होगा। पुराणों के अनुसार उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद जिले के शंभल नामक स्थान पर विष्णुयशा नामक तपस्वी ब्राह्मण के घर भगवान कल्कि पुत्र रूप में जन्म लेंगे। कल्कि देवदत्त नामक घोड़े पर सवार होकर संसार से पापियों का विनाश करेंगे और धर्म की पुन:स्थापना करेंगे**

ॐ महादेवाय विद्महे रुद्रमूर्तये धीमहि ।तन्नः शिवः प्रचोदयात् ॥........... पुराणों के अनुसार शिवजी की आराधना से मनुष्य की सारी मनोकामना पूरी होती है। शिवलिंग पर मात्र जलशिवपुराण कथा में बारह ज्योतिर्लिंग के वर्णन की महिमा बताई गई है। ये 12 ज्योतिर्लिंग जानिए शिव के 12 ज्योतिर्लिंगसोमनाथयह शिवलिंग गुजरात के सौराष्ट्र में स्थापित है।श्री शैल मल्लिकार्जुनमद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग।महाकालउज्जैन में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहां शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था।ओंकारेश्वर ममलेश्वरमध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदान देने यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया।नागेश्वरगुजरात के दारूका वन के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग।बैद्यनाथझारखंड के देवघर में बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग।भीमशंकरमहाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग।त्र्यंम्बकेश्वरनासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग।घुष्मेश्वरमहाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंग।केदारनाथहिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। उत्तराखंड में स्थित है।विश्वनाथबनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग।रामेश्वरम्‌त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग..... सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्  उज्जयिन्यां महाकालं ओम्कारममलेश्वरम् ॥ saurAshTre somanAtham cha shrIshaile mallikArjunam ujjayiniyAm mahAkAlam omkAramamaleshwaram परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करं  सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥ paralyAm vaidyanAtham cha DAkinyAm bheemashankaram setubandhe tu rAmesham nAgesham dArukAvane  वारणस्यां तु विश्र्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे हिमालये तु केदारं घृश्नेशं च शिवालये ॥ vAraNasyAm tu vishvesham tryambakam gautameetaTe himAlaye tu kedAram ghrushnesham cha shivAlaye एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः  सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥ etAni jyotirlingAni sAyam prAtah paThennarah saptajanmakrutam pApam smaraNena vinashyati

भगवान कृष्ण के विभिन्न मंत्र: ... ● मूल मंत्र ● कृं कृष्णाय नमः यह भगवान कृष्ण का मूलमंत्र हैं। इस मूल मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति को जीवन में सभी बाधाओं एवं कष्टों से मुक्ति मिलती हैं एवं सुख कि प्राप्ति होती हैं। ● सप्तदशाक्षर मंत्र ● ॐ श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा यह भगवान कृष्ण का सत्तरा अक्षर का हैं। इस मूल मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति को मंत्र सिद्ध हो जाने के पश्चयात उसे जीवन में सबकुछ प्राप्त होता हैं। ● सप्ताक्षर मंत्र ● गोवल्लभाय स्वाहा इस सात अक्षरों वाले मंत्र के नियमित जाप करने से जीवन में सभी सिद्धियां प्राप्त होती हैं। ● अष्टाक्षर मंत्र ● गोकुल नाथाय नमः इस आठ अक्षरों वाले मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति कि सभी इच्छाएँ एवं अभिलाषाए पूर्ण होती हैं। ● दशाक्षर मंत्र ● क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलांगाय नमः इस दशाक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से संपूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति होती हैं। ● द्वादशाक्षर मंत्र ● ॐ नमो भगवते श्रीगोविन्दाय इस कृष्ण द्वादशाक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से इष्ट सिद्धी की प्राप्ति होती हैं। ● तेईस अक्षर मंत्र ● ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीकृष्णाय गोविंदाय गोपीजन वल्लभाय श्रीं श्रीं श्री यह तेईस अक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति कि सभी बाधाएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं। ● अट्ठाईस अक्षर मंत्र ● ॐ नमो भगवते नन्दपुत्राय आनन्दवपुषे गोपीजनवल्लभाय स्वाहा यह अट्ठाईस अक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति को समस्त अभिष्ट वस्तुओं कि प्राप्ति होती हैं। ● उन्तीस अक्षर मंत्र ● लीलादंड गोपीजनसंसक्तदोर्दण्ड बालरूप मेघश्याम भगवन विष्णो स्वाहा। यह उन्तीस अक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। ● बत्तीस अक्षर मंत्र ● नन्दपुत्राय श्यामलांगाय बालवपुषे कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा। यह बत्तीस अक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति कि समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। ● तैंतीस अक्षर मंत्र ● ॐ कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे। रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ मे॥ यह तैंतीस अक्षर के नियमित जाप करने से समस्त प्रकार की विद्याएं निःसंदेह प्राप्त होती हैं।। जय श्री कृष्ण !! शुभमस्तु !! 

प्रातः स्मरणीय व कल्याणकारी छः मन्त्र! ************************* सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङगलौ च। सप्त  स्वराः सप्त   रसातलानि कुर्वन्तु  सर्वे मम  सुप्रभातम्।।4।। (ब्रह्मा के मानसपुत्र बाल ऋषि) सनतकुमार, सनक, सनन्दन और सनातन तथा (सांख्य-दर्शन के प्रर्वतक कपिल मुनि के शिष्य) आसुरि एवं छन्दों का ज्ञान कराने वाले मुनि पिंगल मेरे इस प्रभात को मंगलमय करें। साथ ही (नाद-ब्रह्म के विवर्तरूप षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद) ये सातों स्वर और (हमारी पृथ्वी से नीचे स्थित) सातों रसातल (अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल, और पाताल) मेरे लिए सुप्रभात करें !! ॐ..... शुभमस्तु !! 

*अष्ट सिध्द नौ निध के दाता, अस बर दीन जानकी मांता* वो आठ सिध्दियां जो श्री हनुमान जी को प्राप्त हैं----------१. अणिमा - जिससे साधक किसी को दिखाई नही पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ मे प्रवेश कर जाता है। २.महिमा - जिसमे योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है। ३.गरिमा - जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है। ४.लघिमा - जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है। ५.प्राप्ति - जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है। ६.प्राकाम्य - जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी मे समा सकता है,आकाश मे उड़ सकता है। ७.ईशित्व - जिससे सब पर शासन का सामर्थय हो जाता है। ८.वशित्व - जिससे दूसरो को वश मे किया जाता है।

Monday, December 15, 2014

* तुलसी एक 'दिव्य पौधा' * भारतीय संस्कृति में तुलसी के पौधे का बहुत महत्व है और इस पौधे को बहुत पवित्र माना जाता है। ऎसा माना जाता है कि जिस घर में तुलसी का पौधा नहीं होता उस घर में भगवान भी रहना पसंद नहीं करते। माना जाता है कि घर के आंगन में तुलसी का पौधा लगा कलह और दरिद्रता दूर करता है। इसे घर के आंगन में स्थापित कर सारा परिवार सुबह-सवेरे इसकी पूजा-अर्चना करता है। यह मन और तन दोनों को स्वच्छ करती है। इसके गुणों के कारण इसे पूजनीय मानकर उसे देवी का दर्जा दिया जाता है। तुलसी केवल हमारी आस्था का प्रतीक भर नहीं है। इस पौधे में पाए जाने वाले औषधीय गुणों के कारण आयुर्वेद में भी तुलसी को महत्वपूर्ण माना गया है। भारत में सदियों से तुलसी का इस्तेमाल होता चला आ रहा है। * लिवर (यकृत) संबंधी समस्या: तुलसी की 10-12 पत्तियों को गर्म पानी से धोकर रोज सुबह खाएं। लिवर की समस्याओं में यह बहुत फायदेमंद है। * पेटदर्द होना: एक चम्मच तुलसी की पिसी हुई पत्तियों को पानी के साथ मिलाकर गाढा पेस्ट बना लें। पेटदर्द होने पर इस लेप को नाभि और पेट के आस-पास लगाने से आराम मिलता है। * पाचन संबंधी समस्या : पाचन संबंधी समस्याओं जैसे दस्त लगना, पेट में गैस बनना आदि होने पर एक ग्लास पानी में 10-15 तुलसी की पत्तियां डालकर उबालें और काढा बना लें। इसमें चुटकी भर सेंधा नमक डालकर पीएं। * बुखार आने पर : दो कप पानी में एक चम्मच तुलसी की पत्तियों का पाउडर और एक चम्मच इलायची पाउडर मिलाकर उबालें और काढा बना लें। दिन में दो से तीन बार यह काढा पीएं। स्वाद के लिए चाहें तो इसमें दूध और चीनी भी मिला सकते हैं। * खांसी-जुकाम : करीब सभी कफ सीरप को बनाने में तुलसी का इस्तेमाल किया जाता है। तुलसी की पत्तियां कफ साफ करने में मदद करती हैं। तुलसी की कोमल पत्तियों को थोडी- थोडी देर पर अदरक के साथ चबाने से खांसी-जुकाम से राहत मिलती है। चाय की पत्तियों को उबालकर पीने से गले की खराश दूर हो जाती है। इस पानी को आप गरारा करने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं। * सर्दी से बचाव : बारिश या ठंड के मौसम में सर्दी से बचाव के लिए तुलसी की लगभग 10-12 पत्तियों को एक कप दूध में उबालकर पीएं। सर्दी की दवा के साथ-साथ यह एक न्यूट्रिटिव ड्रिंक के रूप में भी काम करता है। सर्दी जुकाम होने पर तुलसी की पत्तियों को चाय में उबालकर पीने से राहत मिलती है। तुलसी का अर्क तेज बुखार को कम करने में भी कारगर साबित होता है। * श्वास की समस्या : श्वास संबंधी समस्याओं का उपचार करने में तुलसी खासी उपयोगी साबित होती है। शहद, अदरक और तुलसी को मिलाकर बनाया गया काढ़ा पीने से ब्रोंकाइटिस, दमा, कफ और सर्दी में राहत मिलती है। नमक, लौंग और तुलसी के पत्तों से बनाया गया काढ़ा इंफ्लुएंजा (एक तरह का बुखार) में फौरन राहत देता है। * गुर्दे की पथरी : तुलसी गुर्दे को मजबूत बनाती है। यदि किसी के गुर्दे में पथरी हो गई हो तो उसे शहद में मिलाकर तुलसी के अर्क का नियमित सेवन करना चाहिए। छह महीने में फर्क दिखेगा। * हृदय रोग : तुलसी खून में कोलेस्ट्राल के स्तर को घटाती है। ऐसे में हृदय रोगियों के लिए यह खासी कारगर साबित होती है। * तनाव : तुलसी की पत्तियों में तनाव रोधीगुण भी पाए जाते हैं। तनाव को खुद से दूर रखने के लिए कोई भी व्यक्ति तुलसी के 12 पत्तों का रोज दो बार सेवन कर सकता है। * मुंह का संक्रमण : अल्सर और मुंह के अन्य संक्रमण में तुलसी की पत्तियां फायदेमंद साबित होती हैं। रोजाना तुलसी की कुछ पत्तियों को चबाने से मुंह का संक्रमण दूर हो जाता है। * त्वचा रोग : दाद, खुजली और त्वचा की अन्य समस्याओं में तुलसी के अर्क को प्रभावित जगह पर लगाने से कुछ ही दिनों में रोग दूर हो जाता है। नैचुरोपैथों द्वारा ल्यूकोडर्मा का इलाज करने में तुलसी के पत्तों को सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया गया है। तुलसी की ताजा पत्तियों को संक्रमित त्वचा पर रगडे। इससे इंफेक्शन ज्यादा नहीं फैल पाता। * सांसों की दुर्गध : तुलसी की सूखी पत्तियों को सरसों के तेल में मिलाकर दांत साफ करने से सांसों की दुर्गध चली जाती है। पायरिया जैसी समस्या में भी यह खासा कारगर साबित होती है। * सिर का दर्द : सिर के दर्द में तुलसी एक बढि़या दवा के तौर पर काम करती है। तुलसी का काढ़ा पीने से सिर के दर्द में आराम मिलता है। * आंखों की समस्या : आंखों की जलन में तुलसी का अर्क बहुत कारगर साबित होता है। रात में रोजाना श्यामा तुलसी के अर्क को दो बूंद आंखों में डालना चाहिए। * कान में दर्द : तुलसी के पत्तों को सरसों के तेल में भून लें और लहसुन का रस मिलाकर कान में डाल लें। दर्द में आराम मिलेगा। * ब्लड-प्रेशर को सामान्य रखने के लिए तुलसी के पत्तों का सेवन करना चाहिए। * तुलसी के पांच पत्ते और दो काली मिर्च मिलाकर खाने से वात रोग दूर हो जाता है। * कैंसर रोग में तुलसी के पत्ते चबाकर ऊपर से पानी पीने से काफी लाभ मिलता है। * तुलसी तथा पान के पत्तों का रस बराबर मात्रा में मिलाकर देने से बच्चों के पेट फूलने का रोग समाप्त हो जाता है। * तुलसी का तेल विटामिन सी, कैल्शियम और फास्फोरस से भरपूर होता है। * तुलसी का तेल मक्खी- मच्छरों को भी दूर रखता है। * बदलते मौसम में चाय बनाते हुए हमेशा तुलसी की कुछ पत्तियां डाल दें। वायरल से बचाव रहेगा। * शहद में तुलसी की पत्तियों के रस को मिलाकर चाटने से चक्कर आना बंद हो जाता है। * तुलसी के बीज का चूर्ण दही के साथ लेने से खूनी बवासीर में खून आना बंद हो जाता है। * तुलसी के बीजों का चूर्ण दूध के साथ लेने से नपुंसकता दूर होती है और यौन-शक्ति में वृध्दि होती है। रोज सुबह तुलसी की पत्तियों के रस को एक चम्मच शहद के साथ मिलाकर पीने से स्वास्थ्य बेहतर बना रहता है। तुलसी की केवल पत्तियां ही लाभकारी नहीं होती। तुलसी के पौधे पर लगने वाले फल जिन्हें अमतौर पर मंजर कहते हैं, पत्तियों की तुलना में कहीं अघिक फायदेमंद होता है। विभिन्न रोगों में दवा और काढे के रूप में तुलसी की पत्तियों की जगह मंजर का उपयोग भी किया जा सकता है। इससे कफ द्वारा पैदा होने वाले रोगों से बचाने वाला और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाला माना गया है। किंतु जब भी तुलसी के पत्ते मुंह में रखें, उन्हें दांतों से न चबाकर सीधे ही निगल लें। इसके पीछे का विज्ञान यह है कि तुलसी के पत्तों में पारा धातु के अंश होते हैं। जो चबाने पर बाहर निकलकर दांतों की सुरक्षा परत को नुकसान पहुंचाते हैं। जिससे दंत और मुख रोग होने का खतरा बढ़ जाता है। तुलसी का पौधा मलेरिया के कीटाणु नष्ट करता है। नई खोज से पता चला है इसमें कीनोल, एस्कार्बिक एसिड, केरोटिन और एल्केलाइड होते हैं। तुलसी पत्र मिला हुआ पानी पीने से कई रोग दूर हो जाते हैं। इसीलिए चरणामृत में तुलसी का पत्ता डाला जाता है। तुलसी के स्पर्श से भी रोग दूर होते हैं। तुलसी पर किए गए प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि रक्तचाप और पाचनतंत्र के नियमन में तथा मानसिक रोगों में यह लाभकारी है। इससे रक्तकणों की वृद्धि होती है। तुलसी ब्र्म्ह्चर्य की रक्षा करने एवं यह त्रिदोषनाशक है।

Thursday, December 4, 2014

तमसो मा ज्योतिर्गमय @@@ दीपावलिः भारतवर्षस्य एकः महान् उत्सवः अस्त्ति । दीपावलि इत्युक्ते दीपानाम् आवलिः । अयम् उत्सवः कार्तिकमासास्य अमावस्यायां भवति ।कार्त्तिकमासस्य कृष्णपक्षस्य त्रयोदशीत: आरभ्य कार्त्तिकशुद्धद्वितीयापर्यन्तं ५ दिनानि यावत् आचर्यते एतत् पर्व । सायंकाले सर्वे जनाः दीपानां मालाः प्रज्वालयन्ति । दीपानां प्रकाशः अन्धकारम् अपनयति । एतत्पर्वावसरे गृहे, देवालये, आश्रमे, मठे, नदीतीरे,समुद्रतीरे एवं सर्वत्रापि दीपान् ज्वालयन्ति । प्रतिगृहं पुरत: आकाशदीप: प्रज्वाल्यते । दीपानां प्रकाशेन सह स्फोटकानाम् अपि प्रकाश: भवति । पुरुषाः स्त्रियः बालकाः बालिकाः च नूतनानि वस्त्राणि धारयन्ति आपणानां च शोभां द्रष्टुं गच्छन्ति । रात्रौ जनाः लक्ष्मीं पूजयन्ति मिष्टान्नानि च भक्षयन्ति । सर्वे जनाः स्वगृहाणि स्वच्छानि कुर्वन्ति, सुधया लिम्पन्ति सुन्दरैः च चित्रैः भूषयन्ति । ते स्वमित्रेभ्यः बन्धुभ्यः च मिष्टान्नानि प्रेषयन्ति । बालकाः बालिकाः च क्रीडनकानां मिष्टान्नानां स्फोटकपदार्थानां च क्रयणं कुर्वन्ति । अस्मिन् दिवसे सर्वेषु विद्यालयेषु कार्यालयेषु च अवकाशः भवति । भारतीयाः इमम् उत्सवम् प्रतिवर्षं सोल्लासं समायोजयन्ति । एवं सर्वरीत्या अपि एतत् पर्व दीपमयं भवति । अस्य पर्वण: दीपालिका, दीपोत्सव:, सुखरात्रि:, सुखसुप्तिका, यक्षरात्रि:, कौमुदीमहोत्सव: इत्यादीनि नामानि अपि सन्ति । अस्मिन्नवसरे न केवलं देवेभ्य: अपि तु मनुष्येभ्य: प्राणिभ्य: अपि दीपारतिं कुर्वन्ति । इदं कथ्यते यत् अस्मिन् दिवसे रावणं हत्वा रामः सीतया लक्ष्मणेन च सह अयोध्यां प्रत्यागच्छत् । तदा अयोध्यायाः जनाः अतीव प्रसन्नाः अभवन् । अतः ते स्वानि गृहाणि दीपानां मालाभिः आलोकयन् । ततः प्रभृति प्रतिवर्षम् तस्मिन् एव दिवसे एषः उत्सवः भवति । नीराजयेयुदेर्वांस्तु विप्रान् गावतुरङ्गमान् । इति उक्तम् अस्ति । इति वदति भागवतम् ।हृदयकमलमध्ये दीपवद्वेदसारम् इति उच्यते गुरुगीतायांस्कान्दपुराणे च । यद्यपि दीपावली सर्वैरपि आचर्यते तथापि विशेषतया वैश्यपर्व इति उच्यते । एतदवसरे धनदेवताया: महालक्ष्म्या:, धनाध्यक्षस्य कुबेरस्य च पूजां कुर्वन्ति ।पूजनीया तथा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखसुप्तिका ।

Tuesday, November 18, 2014

क्रोधो मूलमनर्थानां  क्रोधः संसारबन्धनम्। धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥ Hindi Translation क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है,  इसलिए क्रोध को त्याग दें।

!! सत्य मेरी माता है, ज्ञान मेरा पिता !! ! Truth is my mother, Knowledge is father ! ..... सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा ! शांतिः पत्नी छमा पुत्रः खड़ेते मम बान्धवाः !! ..... सत्य मेरी माता है ज्ञान हैं पिता धर्म मेरा भाई है . मित्र है दया ! शांति है पत्नी पुत्र है क्षमा !! ये छ: मेरे बांधव हैं !!

Tuesday, November 11, 2014

नमस्कारः ! सुप्रभातम् !! आप सभी मित्रों का दिन शुभ एवं मंगलमय हो !! !! _/\_ II जय श्री राम !! हे सर्वप्रेरक! सवितः! अस्माकम् सर्वान् दोषान् दूरीकरोतु ।

Wonderful

आप सभी मित्रों का दिन शुभ एवं मंगलमय हो !! _/\_ II जय श्री राम !!

शुभ संध्या _/\_ GOOD EVENINGII जय श्री राम !! ....... ॐ सर्वेषां स्वस्तिर्भवतु । सर्वेषां शान्तिर्भवतु । सर्वेषां पूर्णं भवतु । सर्वेषां मङ्गलं भवतु !! ........

ॐ शिव ॐ शिव, परात्परा शिव ओङ्कार शिव तव शरणम् । नमामि शङ्कर भजामि शङ्कर उमामहेश्वर तव शरणम् ॥ ॐ नमः शिवाय ॥

श्री हनुमान जी और “ ऊँकार........!!!! !! ॐ श्री हनुमते नमः !! हनुमान जी और ऊँकार-एक ही तत्व माने गए हैं। जिस प्रकार निराकार ब्रह्म का वाचक साकाररूप के अनुसार ¬कार है, उसी प्रकार श्री हनुमान जी नाम परोक्ष रूप से ब्रह्मा-विष्णु शिवात्मक ‘ ऊकार का प्रतीक है। तांत्रिक ‘वर्णबीजकोश’ के अनुसार- - ह आकाशबीज है, जो ओंकार (अ+उ+म्) के प्रथम भाग अकार से गृहीत है। कोशशास्त्र में आकाश द्रव्य को विष्णु तत्व कहा गया है। - नु उ कार है, जो शिवतत्व का द्योतक है। - नाम के तृतीय भागमान् में ‘म’ एक भाग है जो बिन्दुनाद शून्य अनुस्वार का बोधक है। यह उपस्थ का बोधक है, जिसके देवता प्रजापति ब्रह्मा हैं। इस प्रकार समष्टिशक्ति रूप से ऊ ब्रह्म-विष्णु-महेश इन तीनों ही आदि कारण तत्वों का प्रतीक है। निष्कर्ष यह कि ‘ह-अ, न्-उ, म-त्-हनुमान-‘ओम्’ एकतत्व हैं। अतः हनुमान जी की उपासना साक्षात ¬-तत्वोपासना होने से परब्रह्म की ही उपासना हुई। जन्म-मृत्यु तथा सांसारिक वासनाओं की मूलभूत माया का विनाश ब्रह्मोपासना के बिना संभव नहीं। उस अचिन्त्य वर्णनातीत ब्रह्म का ही तो स्वरूप ऊकार है। इसी को दर्शनशास्त्र में ‘प्रणव’ नाम दिया गया है। ‘प्र’ का अर्थहै कर्मक्षयपूर्वक, ‘नव’ का अर्थ है नूतन ज्ञान देने वाला। ‘सत्यं ज्ञानमनत्रं ब्रह्म’ आदि श्रुति वाक्यों में ज्ञान को ही ब्रह्म कहा गया है। ‘प्रणव’ का भाव निर्देश और भी है। ‘प्र’ का भावहै प्रकृति से पैदा होने वाला संसाररूपी महासागर, और ‘नव’ का भाव है भवसागर से पार लगाने वाली नाव। एक और अर्थ है- ‘प्र’प्रकर्षण, ‘न’ अर्थात ‘वः’ अर्थात प्रणव अपने उपासकों कोमोक्ष तक पहुंचाने वाला है। हनुमन्नाम का शास्त्रीय आधार हन्+उन्=स्त्रीत्वपक्षे ऊँ-हन्+ऊड् =हन्+मतुय्= हनुमत् अथवा हनुमत = हनुमान या हनुमान्। ज्ञानिनाम् अग्रगण्यः - अग्रगन्ता यः स हनुमान। वाल्मीकि रामायण में हनुमन्नाम के दोनों रूप मिलतेहैं- भृत्यकार्य हनुमता सुग्रीवस्य कृतं महत्। (वा.रा. 6/1/6) तभियोगे नियुक्तेन कृतं क्त्यं हनुमता। (वा.रा. 6/1/10) ‘चम्पू रामायण’ में हन्कृत हनुमान के हनुमंग की कथा मिलती है। हनुमान जी ने विद्या से सूर्य का शिष्यत्व और जन्म से पवन का पुत्रत्व प्राप्त किया। वह इंद्र के वज्र-प्रहार से हनुभंग रूप चिह्न से युक्त हैं, और उन्हेंरावण के यशरूप चंद्रमा का शरीरधारी कृष्णपक्ष कहते हैं। परंतु ‘पद्मपुराण’ में हनुमान नाम के विषय में विचित्र कल्पना मिलती है- ‘हनुसह’ नामक नगर में बालक ने जन्म-संस्कार प्राप्त किया, इसीलिए वह ‘हनुमान’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हनुमान जी के विभिन्न विशेषण: अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्त वातजातं नमामि।। (मानस 5/श्लोक-3) श्री हनुमान का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका परिचय ऊपर वर्णित श्लोक में मिलता है। अतुलितबलधामम् अर्थात श्री हनुमान जी स्वयं तो बलवान हैं ही, दूसरों को बल प्रदान करने में भी समर्थ हैं। हेमशैलाभदेहम् का अर्थ है कि उनकी देह स्वर्णिम शैल की आभा के सदृश है। इसका भावार्थ है कि यदि व्यक्ति अपने शरीर तथा उसकी कांति को स्वर्णिम बनाना चाहता है तो उसे अपने आपको कठिनाइयों के ताप में तपाना चाहिए। दनुजवनकृशानुम् का अर्थ है राक्षसकुलरूपी वन के लिए अग्नि के समान। वह दनुजवत आचारण करने वालों को बिना विचार किए धूल में मिला देते हैं। ज्ञानिनामग्रगण्यम् अर्थात ज्ञानियों में सर्वप्रथम गिनने योग्य। भावार्थ यह कि वही व्यक्ति भगवान के चिर-कृपा-प्रसाद का अधिकारी हो सकता है जो निज विवेक-बल से अपने मार्ग में आने वाले विघ्नों को न केवल पराभूत करे, अपितु- उन्हें इस प्रकार विवश कर दे कि वे उसके बुद्धि-वैभव के आगे नतमस्तक हो उसे हृदय से आशीर्वाद दें। उसकी सफलता के लिए। सकलगुणनिधानम् अर्थात संपूर्ण गुणों के आगार, विशिष्ट अर्थ है दुष्ट के साथ दुष्टता और सज्जन के साथ सज्जनता का व्यवहार करने में प्रवीण। वानराणामधीशम् अर्थात वानरों के प्रभु। रघुतिप्रियभक्तम् अर्थात् भगवान श्री राम के प्रिय भक्त। वातजातम् अर्थात वायुपुत्र। भावार्थ यह कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मेंवही व्यक्ति सफल हो सकता है जोवायु की भांति सतत गतिशील रहे,रुके नहीं। मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम। वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये।। (श्री रामरक्षास्तोत्र 33) इस श्लोक में आए हुए तीन विशेषणों बुद्धिमतां वरिष्ठम्/वानरयूथमुख्यम्। तथा वातात्मजम् की व्याख्या ज्ञानिनामग्रणण्यम्/वानराणामधीशम् तथा वातजातम्के जैसी है। मनोजवम् अर्थात् मन के समान गति वाले। मारुत तुल्यवेगम् अर्थात् वायु के समान गति वाले। एक विशेषण है- श्रीरामदूतम्। भावार्थ यह कि प्रत्येक क्रिया में वे मन की सी गति से अग्रसर होते हैं, तथापि यह तीव्रगामिता केवल परहित-साधन अथवा स्वामी-हित-साधन तक ही सीमित है। वे मन के अधीन होकर ऐसा कोई कार्यनहीं करते जो उनकी महत्ता का विघातक हो, इसीलिए उनको जितेन्द्रियम् भी कहा गया है।श्री हनुमान-स्तुति श्री हनुमान जी की स्तुति जिसमें उनके बारह नामों का उल्लेख मिलता है इस प्रकार है: हनुमान×जनीसूनुर्वायुपुत्रोमहाबलः। रामेष्टः फाल्गुनसखःपिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः।। उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः। लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा।। एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः। स्वापकाले प्रबोधेच यात्राकाले च यः पठेत्।। तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्। (आनंद रामायण 8/3/8-11) उनका एक नाम तो हनुमान है ही, दूसरा अंजनी सूनु, तीसरा वायुपुत्र, चैथा महाबल, पांचवां रामेष्ट (राम जी के प्रिय), छठा फाल्गुनसख (अर्जुन के मित्र), सातवां पिंगाक्ष (भूरे नेत्र वाले) आठवां अमितविक्रम, नौवां उदधिक्रमण (समुद्र को लांघने वाले), दसवां सीताशोकविनाशन (सीताजी के शोक को नाश करने वाले), ग्यारहवां लक्ष्मणप्राणदाता (लक्ष्मण को संजीवनी बूटी द्वारा जीवितकरने वाले) और बारहवां नाम है-दशग्रीवदर्पहा (रावण के घमंड को चूर करने वाले) ये बारह नामश्री हनुमानजी के गुणों के द्योतक हैं। श्रीराम और सीता के प्रति जो सेवा कार्य उनके द्वारा हुए हैं, ये सभी नाम उनके परिचायक हैं और यही श्री हनुमान की स्तुति है। इन नामों का जो रात्रि में सोने के समय या प्रातःकाल उठने पर अथवा यात्रारम्भ के समय पाठ करता है, उस व्यक्ति के सभी भय दूर हो जाते हैं। !! ॐ श्री हनुमते नमः !!

!! ॐ श्री हनुमते नमः !! !! ॐ श्री हनुमते नमः !! !! बजरंग बाण !! !! भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग !! अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जप करते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान तथा शान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थित हनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें। हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकार के धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें। जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भी करते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भ करें। “श्रीराम–” से लेकर “–सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है। गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत का प्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हें कम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए। बजरंग बाण ध्यान श्रीराम अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं। दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं। रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।। दोहा निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान। तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।। चौपाई जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।। जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।। जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।। आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।। जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।। बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।। अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।। लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।। अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।। जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।। जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।। ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।। गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।। सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।। ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।। सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।। जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।। पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।। वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।। पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।। जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।। बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।। भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।। इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।। जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।। जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।। उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।। ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।। ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।। अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।। ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।। ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।। हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।। हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।। जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।। जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।। जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।। जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।। जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।। ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।। राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।। विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।। तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।। यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।। सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।। एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।। याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।। मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।। पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।। डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।। भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।। प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।। आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।। दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।। यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।। शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।। तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।। दोहा प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।। तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।। !! ॐ श्री हनुमते नमः !!

Saturday, October 4, 2014

कुछ न कुछ जरूर कहता है आपके शरीर पर तिल ############### लगभग हर पुरूष व स्त्री के किसी न किसी अंग पर तिल अवश्य पाया जाता है। उस तिल का महत्व क्या है? शरीर के किस हिस्से पर तिल का क्या फल मिलता है। ज्‍योतिष के अभिन्‍न अंग सामुद्रिकशास्‍त्र के अनुसार शरीर के किसी भी अंग पर तिल होना एक अलग संकेत देता है। यदि तिल चेहरे पर कहीं भी हो, तो आप व्‍यक्ति के स्‍वभाव को भी समझ सकते हैं। खास बात यह है कि पुरुष के दाहिने एंव सत्री के बायें अंग पर तिल के फल को शुभ माना जाता है। वहीं अगर बायें अंगों पर हो तो मिले जुले परिणाम मिलते हैं। 1. माथे पर दायीं ओर माथे के दायें हिस्से पर तिल हो तो- धन हमेशा बना रहता है। 2. माथे पर बायीं ओर माथे के बायें हिस्से पर तिल हो तो- जीवन भर कोई न कोई परेशानी बनी रहती है। 3. ललाट पर तिल ललाट पर तिल होने से- धन सम्पदा व ऐश्वर्य का भोग करता है। 4. ठुड्डी पर तिल ठुड्डी पर तिल होने से- जीवन साथी से मतभेद रहता है। 5. दायीं आंख के ऊपर दांयी आंख के ऊपर तिल हो तो- जीवन साथी से हमेशा और बहुत ज्‍यादा प्रेम मिलता है। 6. बायीं आंख के ऊपर बायीं आंख पर तिल हो तो- जीवन में संघर्ष व चिन्ता बनी रहेगी। 7. दाहिने गाल पर दाहिने गाल पर तिल हो तो- धन से परिपूर्ण रहेगें। 8. बायें गाल पर बायें गाल पर तिल हो तो- धन की कमी के कारण परेशान रहेंगे। 9. होंठ पर तिल होंठ पर तिल होने से- काम चेतना की अधिकता रहेगी। 10. होंठ के चीने होंठ के नीचे तिल हो तो- धन की कमी रहेगी। 11. माथे पर दायीं ओर माथे के दायें हिस्से पर तिल हो तो- धन हमेशा बना रहता है। 12. बायें कान पर बायें कान पर तिल हो तो- दुर्घटना से हमेशा बच कर रहना चाहिये। 13. दाहिने कान पर दाहिने कान पर तिल होने से- अल्पायु योग किन्तु उपाय से लाभ होगा। 14. गर्दन पर तिल गर्दन पर पर तिल हो तो- जीवन आराम से व्यतीत होगा, यक्ति दीर्घायु, सुविधा सम्पन्न तथा अधिकारयुक्त होता है। 15. दाहिनी भुजा पर दायीं भुजा पर पर तिल हो तो- साहस एंव सम्मान प्राप्त होगा। 16. बायीं भुजा बायीं भुजा पर तिल होने से- पुत्र सन्तान होने की संभावना होती है और पुत्र से सुख की प्राप्ति होती है। 17. छाती पर दाहिनी ओर छाती पर दाहिनी ओर तिल होने से- जीवन साथी से प्रेम रहेगा। 18. छाती पर बायीं ओर छाती पर बायीं ओर तिल होने से- जीवन में भय अधिक रहेगा। 19. नाक पर तिल नाक पर तिल हो तो- आप जीवन भर यात्रा करते रहेंगे। 20. दा‍यीं हथेली पर दायीं हथेली पर तिल हो तो- धन लाभ अधिक होगा। 21. बायीं हथेली पर बायीं हथेली पर पर तिल हो तो- धन की हानि होगी। 22. पैर पर तिल पांव पर तिल होने से- यात्रायें अधिक करता है। 23. भौहों के मध्‍य भौहों के मध्य तिल हो तो- विदेश यात्रा से लाभ मिलता है। 24. जांघ पर तिल जांघ पर तिल होने से- ऐश्वर्यशली होने के साथ अपने धन का व्यय भोग-विलास में करता है। उसके पास नौकरों की कमी नहीं रहती है। 24. स्‍त्री की भौहों पर स्त्री के भौंहो के मध्य तिल हो तो- उस स्त्री का विवाह उच्चाधिकारी से होता है। 26. कमर पर कमर पर तिल होने से- भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति होती है। 27. पीठ पर तिल पीठ पर तिल हो तो- जीवन दूसरे के सहयोग से चलता है एंव पीठ पीछे बुराई होगी। 28. नाभि पर तिल नाभि पर तिल होने से- कामुक प्रकृति एंव सन्तान का सुख मिलता है। 29. बायें कंधे पर बायें कंधे पर तिल हो तो- मन में संकोच व भय रहेगा। 30. दायें कंधे पर दायें कंधें पर तिल हो तो- साहस व कार्य क्षमता अधिक होती है. @@@ पं सुशील मिश्रा ...!! जय श्री राम. ....!!

Monday, September 29, 2014

महाजनस्य संसर्गः, कस्य नोन्नतिकारकः। पद्मपत्रस्थितं तोयम्, धत्ते मुक्ताफलश्रियम् ॥ ........ हिंदी अनुवाद महापुरुषों का सामीप्य किसके लिए लाभदायक नहीं होता, कमल के पत्ते पर पड़ी हुई पानी की बूँद भी मोती जैसी शोभा प्राप्त कर लेती है|

कुसुमस्तबकस्येव द्वयीवृत्तिर्मनस्विनः। मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य विशीर्येत वनेऽथवा ।। ...... फूलों की तरह मनस्वियों की दो ही गतियाँ होती हैं; वे या तो समस्त विश्व के सिर पर शोभित होते हैं या वन में अकेले मुरझा जाते हैं॥

मन्दोऽप्यमन्दतामेति संसर्गेण विपश्चितः। पङ्कच्छिदः फलस्येव निकषेणाविलं पयः॥ ....... बुद्धिमानों के साथ से मंद व्यक्ति भी बुद्धि प्राप्त कर लेते हैं जैसे रीठे के फल से उपचारित गन्दा पानी भी स्वच्छ हो जाता है॥

केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः न स्नानं न विलोपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः। वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता र्धायते क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥ ....... बाजुबंद पुरुष को शोभित नहीं करते और न ही चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, न स्नान, न चन्दन, न फूल और न सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई एक वाणी ही उसकी सुन्दर प्रकार से शोभा बढ़ाती है। साधारण आभूषण नष्ट हो जाते हैं, वाणी ही सनातन आभूषण है॥

क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोधः संसारबन्धनम्। धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥ ..... क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है, इसलिए क्रोध को त्याग दें।

Satsang (सत्संग) दिनभरमें वह कार्य कर लें, जिससे रातमें सुखसे रह सके और आठ महीनोंमें वह कार्य कर ले, जिससे वर्षाके चार महीने सुखसे व्यतीत कर सके । पहली अवस्थामें वह कार्य करे, जिससे वृद्धावस्थामें सुखपूर्वक रह सके और जीवनभर वह कार्य करे, जिससे मरनेके बाद भी सुखसे रह सके । महाभारत, उधोग. ३५।६७-६८ ........ नित्य वृद्धजनोंको प्रणाम करनेसे तथा उनकी सेवा करनेसे मनुष्यकी आयु, विद्या (बुद्धि, कीर्ति), यश और बल बढ़ते हैं। - मनुस्मृति २।१२१, भविष्यपुराण, महाभारत ........ तिल, कुश और तुलसी – ये तीन पदार्थ मरणासन्न व्यक्तिकी दुर्गतिको रोककर उसे सद्‍गति दिलाते हैं। - गरुडपुराण .......... बुद्धिमान्‌ मनुष्यको राजा, ब्राह्मण, वैध, मूर्ख, मित्र, गुरु और प्रियजनोंके साथ विवाद नहीं करना चाहिये। - चाणक्यसुत्र ३५२ .......... कबिरा सब जग निर्धना धनवंता नहिं कोय । धनवंता सोइ जानिये जाके राम नाम धन होय ॥ ........ जो केवल अपने लिये ही भोजन बनाता है, जो केवल काम-सुखके लिये ही मैथुन करता है और जो केवल आजीविका प्राप्त करनेके लिये ही पढाई करता है, उसका जीवन निष्फल है। - लघुव्याससंहिता ८१-८२ व्यायाम, रात्रि-जागरण, पैदल चलना, मैथुन, हँसना और बोलना – इन्हें अधिक मात्रामें करनेपर मनुष्य नष्ट हो जाता है। ........ विष्णुके मन्दिरकी चार बार, शंकरके मन्दिरकी आधी बार, देवीके मन्दिरकी एक बार, सूर्यके मन्दिरकी सात बार और श्रीगणेशके मन्दिरकी तीन बार परिक्रमा करनी चाहिये । - नारदपुराण .......... पं सुशील मिश्रा !!. जय श्री राम. ..!!

सपने तथा उनसे प्राप्त होने वाले संभावित फल.........!! @@@@@@@@@@@ 1- सांप दिखाई देना- धन लाभ 2- नदी देखना- सौभाग्य में वृद्धि 3- नाच-गाना देखना- अशुभ समाचार मिलने के योग 4- नीलगाय देखना- भौतिक सुखों की प्राप्ति 5- नेवला देखना- शत्रुभय से मुक्ति 6- पगड़ी देखना- मान-सम्मान में वृद्धि 7- पूजा होते हुए देखना- किसी योजना का लाभ मिलना 8- फकीर को देखना- अत्यधिक शुभ फल 9- गाय का बछड़ा देखना- कोई अच्छी घटना होना 10- वसंत ऋतु देखना- सौभाग्य में वृद्धि 11- स्वयं की बहन को देखना- परिजनों में प्रेम बढऩा 12- बिल्वपत्र देखना- धन-धान्य में वृद्धि 13- भाई को देखना- नए मित्र बनना 14- भीख मांगना- धन हानि होना 15- शहद देखना- जीवन में अनुकूलता 16- स्वयं की मृत्यु देखना- भयंकर रोग से मुक्ति 17- रुद्राक्ष देखना- शुभ समाचार मिलना 18- पैसा दिखाई- देना धन लाभ 19- स्वर्ग देखना- भौतिक सुखों में वृद्धि 20- पत्नी को देखना- दांपत्य में प्रेम बढ़ना 21- स्वस्तिक दिखाई देना- धन लाभ होना 22- हथकड़ी दिखाई देना- भविष्य में भारी संकट 23- मां सरस्वती के दर्शन- बुद्धि में वृद्धि 24- कबूतर दिखाई देना- रोग से छुटकारा 25- कोयल देखना- उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति 26- अजगर दिखाई देना- व्यापार में हानि 27- कौआ दिखाई देना- बुरी सूचना मिलना 28- छिपकली दिखाई देना- घर में चोरी होना 29- चिडिय़ा दिखाई देना- नौकरी में पदोन्नति 30- तोता दिखाई देना- सौभाग्य में वृद्धि 31- भोजन की थाली देखना- धनहानि के योग 32- इलाइची देखना- मान-सम्मान की प्राप्ति 33- खाली थाली देखना- धन प्राप्ति के योग 34- गुड़ खाते हुए देखना- अच्छा समय आने के संकेत 35- शेर दिखाई देना- शत्रुओं पर विजय 36- हाथी दिखाई देना- ऐेश्वर्य की प्राप्ति 37- कन्या को घर में आते देखना- मां लक्ष्मी की कृपा मिलना 38- सफेद बिल्ली देखना- धन की हानि 39- दूध देती भैंस देखना- उत्तम अन्न लाभ के योग 40- चोंच वाला पक्षी देखना- व्यवसाय में लाभ 41- स्वयं को दिवालिया घोषित करना- व्यवसाय चौपट होना 42- चिडिय़ा को रोते देखता- धन-संपत्ति नष्ट होना 43- चावल देखना- किसी से शत्रुता समाप्त होना 44- चांदी देखना- धन लाभ होना 45- दलदल देखना- चिंताएं बढऩा 46- कैंची देखना- घर में कलह होना 47- सुपारी देखना- रोग से मुक्ति 48- लाठी देखना- यश बढऩा 49- खाली बैलगाड़ी देखना- नुकसान होना 50- खेत में पके गेहूं देखना- धन लाभ होना 51- किसी रिश्तेदार को देखना- उत्तम समय की शुरुआत 52- तारामंडल देखना- सौभाग्य की वृद्धि 53- ताश देखना- समस्या में वृद्धि 54- तीर दिखाई- देना लक्ष्य की ओर बढऩा 55- सूखी घास देखना- जीवन में समस्या 56- भगवान शिव को देखना- विपत्तियों का नाश 57- त्रिशूल देखना- शत्रुओं से मुक्ति 58- दंपत्ति को देखना- दांपत्य जीवन में अनुकूलता 59- शत्रु देखना- उत्तम धनलाभ 60- दूध देखना- आर्थिक उन्नति 61- धनवान व्यक्ति देखना- धन प्राप्ति के योग 62- दियासलाई जलाना- धन की प्राप्ति 63- सूखा जंगल देखना- परेशानी होना 64- मुर्दा देखना- बीमारी दूर होना 65- आभूषण देखना- कोई कार्य पूर्ण होना 66- जामुन खाना- कोई समस्या दूर होना 67- जुआ खेलना- व्यापार में लाभ 68- धन उधार देना- अत्यधिक धन की प्राप्ति 69- चंद्रमा देखना- सम्मान मिलना 70- चील देखना- शत्रुओं से हानि 71- फल-फूल खाना- धन लाभ होना 72- सोना मिलना- धन हानि होना 73- शरीर का कोई अंग कटा हुआ देखना- किसी परिजन की मृत्यु के योग 74- कौआ देखना- किसी की मृत्यु का समाचार मिलना 75- धुआं देखना- व्यापार में हानि 76- चश्मा लगाना- ज्ञान में बढ़ोत्तरी 77- भूकंप देखना- संतान को कष्ट 78- रोटी खाना- धन लाभ और राजयोग 79- पेड़ से गिरता हुआ देखना किसी रोग से मृत्यु होना 80- श्मशान में शराब पीना- शीघ्र मृत्यु होना 81- रुई देखना- निरोग होने के योग 82- कुत्ता देखना- पुराने मित्र से मिलन 83- सफेद फूल देखना- किसी समस्या से छुटकारा 84- उल्लू देखना- धन हानि होना 85- सफेद सांप काटना- धन प्राप्ति 86- लाल फूल देखना- भाग्य चमकना 87- नदी का पानी पीना- सरकार से लाभ 88- धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना- यश में वृद्धि व पदोन्नति 89- कोयला देखना- व्यर्थ विवाद में फंसना 90- जमीन पर बिस्तर लगाना- दीर्घायु और में वृद्धि 91- घर बनाना- प्रसिद्धि मिलना 92- घोड़ा देखना- संकट दूर होना 93- घास का मैदान देखना- धन लाभ के योग 94- दीवार में कील ठोकना- किसी बुजुर्ग व्यक्ति से लाभ 95- दीवार देखना- सम्मान बढऩा 96- बाजार देखना- दरिद्रता दूर होना 97- मृत व्यक्ति को पुकारना- विपत्ति एवं दुख मिलना 98- मृत व्यक्ति से बात करना- मनचाही इच्छा पूरी होना 99- मोती देखना- पुत्री प्राप्ति 100- लोमड़ी देखना- किसी घनिष्ट व्यक्ति से धोखा मिलना 101- गुरु दिखाई देना- सफलता मिलना.......!! पं सुशील मिश्रा !!. जय श्री राम. ..!!

Monday, September 22, 2014

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् , भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् || अर्थात् उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे। अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध पवणीय तेज का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें।

दुर्गा के कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र माँ दुर्गा के लोक कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र  १॰ बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये “सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।  मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥” (अ॰१२,श्लो॰१३) अर्थ :- मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। २॰ बन्दी को जेल से छुड़ाने हेतु “राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा। आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे।।” (अ॰१२, श्लो॰२७) ३॰ सब प्रकार के कल्याण के लिये “सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।  शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥” (अ॰११, श्लो॰१०) अर्थ :- नारायणी! तुम सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है। ४॰ दारिद्र्य-दु:खादिनाश के लिये “दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:  स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि। दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या  सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽ‌र्द्रचित्ता॥” (अ॰४,श्लो॰१७) अर्थ :- माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दु:ख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दया‌र्द्र रहता हो। ४॰ वित्त, समृद्धि, वैभव एवं दर्शन हेतु “यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि।। संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः। यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने।। तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्। वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके।। (अ॰४, श्लो॰३५,३६,३७) ५॰ समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये “विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु। त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :॥” (अ॰११, श्लो॰६) अर्थ :- देवि! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो। ६॰ शास्त्रार्थ विजय हेतु “विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु च का त्वदन्या। ममत्वगर्तेऽति महान्धकारे, विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्।।” (अ॰११, श्लो॰ ३१) ७॰ संतान प्राप्ति हेतु “नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा। ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी” (अ॰११, श्लो॰४२) ८॰ अचानक आये हुए संकट को दूर करने हेतु “ॐ इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति। तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्ॐ।।” (अ॰११, श्लो॰५५) ९॰ रक्षा पाने के लिये शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।  घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥ अर्थ :- देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें। १०॰ शक्ति प्राप्ति के लिये सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।  गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥ अर्थ :- तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है। ११॰ प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।  त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥ अर्थ :- विश्व की पीडा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पडे हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियों की पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो। १२॰ विविध उपद्रवों से बचने के लिये रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।  दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥ अर्थ :- जहाँ राक्षस, जहाँ भयंकर विषवाले सर्प, जहाँ शत्रु, जहाँ लुटेरों की सेना और जहाँ दावानल हो, वहाँ तथा समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम विश्व की रक्षा करती हो। १३॰ बाधा शान्ति के लिये “सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।  एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥” (अ॰११, श्लो॰३८) अर्थ :- सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो। १४॰ सर्वविध अभ्युदय के लिये ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्ग:। धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥ अर्थ :- सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं, उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है, उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं। १५॰ सुलक्षणा पत्‍‌नी की प्राप्ति के लिये पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।  तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥ अर्थ :- मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्‍‌नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो। १६॰ आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिये देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।  रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ अर्थ :- मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। १७॰ महामारी नाश के लिये जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।  दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥ अर्थ :- जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो। १८॰ रोग नाश के लिये “रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।  त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥” (अ॰११, श्लो॰ २९) अर्थ :- देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाञ्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं। १९॰ विपत्ति नाश के लिये “शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।  सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥” (अ॰११, श्लो॰१२) अर्थ :- शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है। २०॰ पाप नाश के लिये हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।  सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥ अर्थ :- देवि! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मो से रक्षा करती है। १७॰ भय नाश के लिये “सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।  भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥ एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।  पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥ ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।  त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥ ” (अ॰११, श्लो॰ २४,२५,२६) अर्थ :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है। २१॰ विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति के लिये करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी  शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:। अर्थ :- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले। २२॰ विश्व की रक्षा के लिये या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी:  पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:। श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा  तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥ अर्थ :- जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये। २३॰ विश्व के अभ्युदय के लिये विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं  विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्। विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति  विश्वाश्रया ये त्वयि भक्ति नम्रा:॥ अर्थ :- विश्वेश्वरि! तुम विश्व का पालन करती हो। विश्वरूपा हो, इसलिये सम्पूर्ण विश्व को धारण करती हो। तुम भगवान् विश्वनाथ की भी वन्दनीया हो। जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को आश्रय देनेवाले होते हैं। २४॰ विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिये देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद  प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य। प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं  त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥ अर्थ :- शरणागत की पीडा दूर करनेवाली देवि! हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो। २५॰ विश्व के पाप-ताप निवारण के लिये देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्य:। पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥ अर्थ :- देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओं के भय से बचाओ। सम्पूर्ण जगत् का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बडे-बडे उपद्रवों को शीघ्र दूर करो। २६॰ विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिये यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो  ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तु मलं बलं च। सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय  नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥ अर्थ :- जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें। २७॰ सामूहिक कल्याण के लिये देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या  निश्शेषदेवगणशक्ति समूहमूत्र्या। तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां  भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:॥ अर्थ :- सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगों का कल्याण करें।  २८॰ भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिये विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्। रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ २९॰ पापनाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिये नतेभ्यः सर्वदा भक्तया चण्डिके दुरितापहे। रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ३०॰ स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिये सर्वभूता यदा देवि स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी। त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥ ३१॰ स्वर्ग और मुक्ति के लिये “सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य ह्रदि संस्थिते। स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोस्तुऽते॥” (अ॰११, श्लो८) ३२॰ मोक्ष की प्राप्ति के लिये त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया। सम्मोहितं देवि समस्तमेतत् त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥ ३३॰ स्वप्न में सिद्धि-असिद्धि जानने के लिये दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके। मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय॥ ३४॰ प्रबल आकर्षण हेतु “ॐ महामायां हरेश्चैषा तया संमोह्यते जगत्, ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।” (अ॰१, श्लो॰५५)

शिवजी बोले – देवी ! सुनो। मैं उत्तम कुंजिकास्तोत्रका उपदेश करुँगा , जिस मन्त्र के प्रभाव से देवीका जप ( पाठ ) सफ़ल होता है || कवच , अर्गला , कीलक ,रहस्य,सूक्त,ध्यान,न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी (आवश्यक ) नहीं हैं || केवल कुंजिकाके पाठसे दुर्गा-पाठका फल प्राप्त हो जाता है । ( यह कुंजिका) अत्यन्त गुप्त और देवों के लिए भी दुर्लभ है || शिव उवाच  शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌। येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत्‌॥  न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌। न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्‌॥  कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्‌। अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥  गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति। मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।  पाठमात्रेण संसिद्ध्‌येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌ ॥  मंत्र :- ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा  नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि। नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनी॥  नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनी॥ जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।  ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥ क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।  चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणी॥  धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी। क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु॥  हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥  अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं । धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥  पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥  इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥  यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्‌। न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥  ॐ श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं। हरि ॐ तत्सत

शारदीय नवरात्र , शरद नवरात्री आश्विन शुक्ल पक्ष की पड़वा से लेकर नवमी तक शारदीय नवरात्री मनाया जाता हैं ! भारत में चार नवरात्री मनाते हैं जो कि इस प्रकार हैं ! चैत्र अषाढ़ अश्विन माघ आश्विन नवरात्र का अपना महत्त्व हैं ! अश्विन नवरात्री को शारदीय नवरात्री के नाम से भी जाना जाता हैं ! चैत्र और शरद नवरात्री में सभी देवी माँ की उपासना करते हैं ! नवरात्री में महादुर्गा, महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली, आदि देवियों की उपासना व् दुर्गा सप्तशती और दुर्गा चालीसा का पाठ करना चाहिए ! स्वयं ये पाठ न कर सकते हो तो ब्राह्मण द्वारा, गणेश, माँ दुर्गा, माँ लक्ष्मी , कलश , नवग्रह, षोडश मातृका एवं सर्वतो भद्र बेदी आदि का पूजन कराकर पाठ करे ! प्रतिदिन बटुक व् कुमारी का भी पूजन करे ! नवमी को हवन करे ! इन नौ दिनों में अर्थात शरद नवरात्री में ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए ! हो सके तो नौ दिनों का उपवास करे ! अन्यथा अपनी सामर्थ्यनुसार भोजन कर प्रसाद ग्रहण करे ! कन्या पूजन में कन्याओं की आयु दस वर्ष तक की ही होनी चाहिए ! नवरात्री में श्री मदभागवत की कथा व् रामायण पाठ भी सुखद व् अनुकूलित फल प्रदान करता हैं ! शरद नवरात्री में सरस्वती शयन भी कराया जाता हैं ! पूजन का विधान में सरस्वती जी को मूल नक्षत्र में आहवाहन करें तथा पुस्तक को शयन कराकर पुस्तक का प्रतिदिन पूजन करे ! श्रवण नक्षत्र में विसर्जन करे सप्तमी से दसमी तक पठन पाठन बंद रखे ! नवरात्री में प्रतिदिन सिद्ध कुज्जिका स्तोत्र का पाठ करने से दुर्गा सप्तशती पाठ करने का पूर्ण फल मिलता हैं !

शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, 25 सितंबर 2014 को शारदीय नवरात्रों का प्रारंभ होगा. देवी दुर्गा जी की पूजा प्राचीन काल से ही चली आ रही है, अनेक पौराणिक कथाओं में शक्ति की अराधना का महत्व व्यक्त किया गया है. नौ दिनों तक चलने नवरात्र पर्व में माँ दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा का विधान है. नवरात्र के इन प्रमुख नौ दिनों तक देवी दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ इत्यादि धार्मिक किर्या कलाप संपन्न किए जाते हैं. कलश स्थापना के साथ शारदीय नवरात्र प्रारंभ | दुर्गा पूजन का आरंभ कलश स्थापना से शुरू हो जाता है अत: यह नवरात्र घट स्थापना प्रतिपदा तिथि को 25 सितंबर के दिन की जाएगी. आश्चिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है. व्रत का संकल्प लेने के पश्चात ब्राह्मण द्वारा या स्वयं ही मिटटी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है. कलश की स्थापना के साथ ही माता का पूजन आरंभ हो जाता है और नौ दिनों तक चलने वाला यह पर्व अपने साथ सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करने वाला होता है. शक्ति पूजा का यह समय संपूर्ण ब्रह्माण की शक्ति को नमन करने और प्रकृत्ति के निर्विकार रुप से अग्रसर होने का समय होता है. शक्ति उपासना का समय शारदीय नवरात्र | शारदीय नवरात्र शक्ति उपासना का महत्वपूर्ण समय होता है. देवी के जयकारों से समस्त वातावरण अभिभूत हो जाता है. देवी की मूर्तियाँ बनाकर उनकी विशेष पूजा उपासना की जाती है. कलश स्थापना कर दुर्गा सप्तशती एवं दुर्गा मां के मंत्रो उच्चारणों द्वारा माता का आह्वान किया जाता है. शारदीय नवरात्र आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक इनका रंग दिन प दिन चढ़ता जाता है और नवमी के आते आते पर्व का उत्साह अपने चरम पर होते हैं. दुर्गा अष्टमी तथा नवमी के दिन मां दुर्गा देवी की पूर्ण आहुति दी जाती है नैवेद्य, चना, हलवा, खीर आदि से भोग लगाकर कन्यों को भोजन कराया जाता है. शक्ति पूजा का यह समय, कन्याओं के रुप में शक्ति की पूजा को अभिव्यक्त करता है.आदिशक्ति की इस पूजा का उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है. श्री राम द्वारा किया गया शक्ति पूजन तथा मार्कण्डेय पुराण अनुसार स्वयं मां ने इस समय शक्ति पूजा के महत्व को प्रदर्शित किया है. आश्विन माह की नवरात्र में रामलीला, रामायण, भागवत पाठ, अखंड कीर्तन जैसे सामूहिक धार्मिक अनुष्ठान देखे जा सकते हैं नवरात्र में देवी दुर्गा की कृपा, जीव को सदगति प्रदान करने वाली होती है तथा जीव समस्त बंधनों एवं कठिनाईयों से पार पाने कि शक्ति प्राप्त करने में सफल होता है. शारदीय नवरात्र व्रत | शारदीय नवरात्र व्रत स्त्री-पुरुष दोनों कर सकते हैं. सर्वप्रथम प्रातः काल स्वयं स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त होकर वर्त संकल्प कर पूजा स्थान पर वेदी का निर्माण कर लेना चाहिए श्री गणेश करते हुए आद्या शक्ति का विधिवत प्रकार से षोडशोपचार पूजन करना चाहिए. कलश की स्थापना कर नवरात्र व्रत का संकल्प लेकर कलश में आम के हरे पत्ते, दूर्वा, पंचामृत एवं पंचगव्य डालकर उसके मुंह पर कलावा बाधना चाहिए, कलश के पास गेहूं या जौ का पात्र रखकर पूजन कर मा दुर्गा का ध्यान करना चाहिए. देवी महात्म्य और दुर्गा सप्तशती पाठ के साथ मंत्रोचारण भी करना चाहिए इस प्रकार नौ दिनों तक नवरात्र करके दशमी को दशांश हवन, कन्या पूजन द्वारा व्रत का पारण करना चाहिए.

Thursday, September 18, 2014

क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोधः संसारबन्धनम्। धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥ ..... क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है, इसलिए क्रोध को त्याग दें।

केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः न स्नानं न विलोपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः। वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता र्धायते क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥ ....... बाजुबंद पुरुष को शोभित नहीं करते और न ही चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, न स्नान, न चन्दन, न फूल और न सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई एक वाणी ही उसकी सुन्दर प्रकार से शोभा बढ़ाती है। साधारण आभूषण नष्ट हो जाते हैं, वाणी ही सनातन आभूषण है॥

मन्दोऽप्यमन्दतामेति संसर्गेण विपश्चितः। पङ्कच्छिदः फलस्येव निकषेणाविलं पयः॥ ....... बुद्धिमानों के साथ से मंद व्यक्ति भी बुद्धि प्राप्त कर लेते हैं जैसे रीठे के फल से उपचारित गन्दा पानी भी स्वच्छ हो जाता है॥

कुसुमस्तबकस्येव द्वयीवृत्तिर्मनस्विनः। मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य विशीर्येत वनेऽथवा ।। ...... फूलों की तरह मनस्वियों की दो ही गतियाँ होती हैं; वे या तो समस्त विश्व के सिर पर शोभित होते हैं या वन में अकेले मुरझा जाते हैं॥

महाजनस्य संसर्गः, कस्य नोन्नतिकारकः। पद्मपत्रस्थितं तोयम्, धत्ते मुक्ताफलश्रियम् ॥ ........ हिंदी अनुवाद महापुरुषों का सामीप्य किसके लिए लाभदायक नहीं होता, कमल के पत्ते पर पड़ी हुई पानी की बूँद भी मोती जैसी शोभा प्राप्त कर लेती है|

नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तपः । नास्ति राग समं दुःखम् नास्ति त्याग समं सुखम् ॥

​ हिमालयं समारभ्य यावत् इंदु सरेावरम् | तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते || ....... ​हिमालय पर्वत से शुरू होकर भारतीय महासागर तक फैला हुआ ​इश्वर निर्मित देश है "हिंदुस्तान " ​, ​यही वह देश है जहाँ इश्वर समय -​ समय पर जन्म लेते हैं और सामाजिक सभ्यता की स्थापना करते हैं ।

नाभिषेको न संस्कार: सिंहस्य क्रियते मृगैः | विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता || ........ जंगल में पशु शेर का संस्कार करके या उसपर पवित्र जल का छिडकाव करके उसे राजा घोषित नहीं करते बल्कि शेर अपनी क्षमताओं और योग्यता के बल पर खुद ही राजत्व स्वीकार करता है ।

हंस: श्वेतो बक: श्वेतो को भेदो बकहंसयो: | नीरक्षीरविवेके तु हंस: हंसो बको बक: || ....... यूँ तो हंस और बगुला दोनों का रंग श्वेत होता है, लेकिन जब दूध और पानी के मिश्रण में से दूध और पानी को अलग करने की बात आती है तो तब हंस और बगुले में अंतरका पता चलता है ।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् , भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् || अर्थात् उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे। अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध पवणीय तेज का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें।

Monday, September 15, 2014

स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः । स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार | तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर || अर्थ : तुलसीदासजी कहते हैं कि हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी मणिदीप को रखो ll.............!! बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय. रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय. अर्थ : मनुष्य को सोचसमझ कर व्यवहार करना चाहिए,क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे यदि एकबार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकेगा.!!

नदियोंकी पवित्रताकी रक्षा, धर्मकर्तव्य ही है ! धर्मशास्त्रके अनुसार 'जल श्रीविष्णुका निवासस्थान है, अतः उसे प्रदूषित नहीं करना चाहिए' । नदी प्रदूषणमुक्त करने हेतु - १. नदीमें प्लास्टिक, कूडा-कचरा इत्यादि न फेंकें ! २. नदीमें कुल्ला करना, मल-मूत्र विसर्जन इत्यादि न करें ! ३. कारखानोंके कारण हो रहे नदी-प्रदूषणका वैधानिक विरोध करें ! हिंदुओ, नदियोंकी पवित्रताकी रक्षा करो । इसके लिए अन्योंको भी प्रेरित करो एवं श्रीविष्णुकी कृपा पाओ !

चंदन है इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम है हर बाला देवी की प्रतिमा बच्चा बच्चा राम है || हर शरीर मंदिर सा पावन हर मानव उपकारी है जहॉं सिंह बन गये खिलौने गाय जहॉं मॉं प्यारी है जहॉं सवेरा शंख बजाता लोरी गाती शाम है | जहॉं कर्म से भाग्य बदलता श्रम निष्ठा कल्याणी है त्याग और तप की गाथाऍं गाती कवि की वाणी है ज्ञान जहॉं का गंगाजल सा निर्मल है अविराम है | जिस के सैनिक समरभूमि मे गाया करते गीता है जहॉं खेत मे हल के नीचे खेला करती सीता है जीवन का आदर्श जहॉं पर परमेश्वर का धाम है |

नवरात्रि क्या है ?? और नवरात्र का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक रहस्य :: नवरात्र शब्द से नव अहोरात्रों (विशेष रात्रियां) का बोध होता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है। 'रात्रि' शब्द सिद्धि का प्रतीक है। भारत के प्राचीन ऋषियों-मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है, इसलिए दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परंपरा है। यदि रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता,... तो ऐसे उत्सवों को रात्रि न कह कर दिन ही कहा जाता। लेकिन नवरात्र के दिन, नवदिन नहीं कहे जाते। मनीषियों ने वर्ष में दो बार नवरात्रों का विधान बनाया है। विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से नौ दिन अर्थात नवमी तक। और इसी प्रकार ठीक छह मास बाद आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के एक दिन पूर्व तक। परंतु सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है।इन नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग साधना आदि करते हैं। कुछ साधक इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर आंतरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप द्वारा विशेष सिद्धियां प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। नवरात्रों में शक्ति के 51 पीठों पर भक्तों का समुदाय बड़े उत्साह से शक्ति की उपासना के लिए एकत्रित होता है। जो उपासक इन शक्ति पीठों पर नहीं पहुंच पाते, वे अपने निवास स्थल पर ही शक्ति का आह्वान करते हैं। आजकल अधिकांश उपासक शक्ति पूजा रात्रि में नहीं, पुरोहित को दिन में ही बुलाकर संपन्न करा देते हैं। सामान्य भक्त ही नहीं, पंडित और साधु-महात्मा भी अब नवरात्रों में पूरी रात जागना नहीं चाहते। न कोई आलस्य को त्यागना चाहता है। बहुत कम उपासक आलस्य को त्याग कर आत्मशक्ति, मानसिक शक्ति और यौगिक शक्ति की प्राप्ति के लिए रात्रि के समय का उपयोग करते देखे जाते हैं।मनीषियों ने रात्रि के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने और समझाने का प्रयत्न किया। रात्रि में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं। आधुनिक विज्ञान भी इस बात से सहमत है। हमारे ऋषि - मुनि आज से कितने ही हजारों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे। दिन में आवाज दी जाए तो वह दूर तक नहीं जाएगी , किंतु रात्रि को आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है। इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं। रेडियो इस बात का जीता - जागता उदाहरण है। कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है , जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है। वैज्ञानिक सिद्धांत → वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं, उसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है। इसीलिए ऋषि - मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है। मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर - दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है। यह रात्रि का वैज्ञानिक रहस्य है। जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रियों में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं , उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि , उनके शुभ संकल्प के अनुसार उचित समय और ठीक विधि के अनुसार करने पर अवश्य होती है। नवरात्र या नवरात्रि → संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण हैं। नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने के कारण से द्वन्द समास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप 'नवरात्र' में ही शुध्द है। नवरात्र क्या है → पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियाँ हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुध्द रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम 'नवरात्र' है। नौ दिन या रात → अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी 'नवरात्र' नाम सार्थक है। यहाँ रात गिनते हैं, इसलिए नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है।रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है। इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है। इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुध्दि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं। शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुध्दि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है। सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुध्दि, साफ सुथरे शरीर में शुध्द बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुध्द होता है। स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है। नौ देवियाँ / नव देवी → नौ दिन यानि हिन्दी माह चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की पड़वा यानि पहली तिथि से नौवी तिथि तक प्रत्येक दिन की एक देवी मतलब नौ द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप हैं : 1. शैलपुत्री 2. ब्रह्मचारिणी 3. चंद्रघंटा 4. कूष्माण्डा 5. स्कन्दमाता 6. कात्यायनी 7. कालरात्रि 8. महागौरी 9. सिध्दीदात्री इनका नौ जड़ी बूटी या ख़ास व्रत की चीजों से भी सम्बंध है, जिन्हे नवरात्र के व्रत में प्रयोग किया जाता है : 1. कुट्टू (शैलान्न) 2. दूध-दही, 3. चौलाई (चंद्रघंटा) 4. पेठा (कूष्माण्डा) 5. श्यामक चावल (स्कन्दमाता) 6. हरी तरकारी (कात्यायनी) 7. काली मिर्च व तुलसी (कालरात्रि) 8. साबूदाना (महागौरी) 9. आंवला(सिध्दीदात्री) क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं। अष्टमी या नवमी → यह कुल परम्परा के अनुसार तय किया जाता है। भविष्योत्तर पुराण में और देवी भावगत के अनुसार, बेटों वाले परिवार में या पुत्र की चाहना वाले परिवार वालों को नवमी में व्रत खोलना चाहिए। वैसे अष्टमी, नवमी और दशहरे के चार दिन बाद की चौदस, इन तीनों की महत्ता 'दुर्गासप्तशती' में कही गई है। जय माँ भवानी..

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।। (सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े ।)

वर्तमान शिक्षापद्धतिके दुष्परिणाम ! धूर्त ब्रिटिश शिक्षा विशेषज्ञ मेकौलेने ब्रिटिश सत्ता बनाए रखने हेतु अंग्रेजी भाषा जाननेवाले लिपिक (बाबू) सिद्ध (तैयार) करनेवाली शिक्षापद्धति भारतमें लागू की । इसका गुप्त उद्देश्य था, 'हिंदुओंकी आगामी पीढियोंको उनके धर्म और संस्कृतिसे दूर करना ।' स्वतंत्रताप्राप्तिके पश्चात, हमारे भारतीय शासकोंने यही शिक्षापद्धति जारी रखी । आजकल विद्यार्थियोंमें अनैतिकता, 'रैगिंग'की कुप्रथा तथा धर्मनिष्ठाका अभाव आदि दुष्परिणाम मेकौलेकी ही शिक्षापद्धतिके कटु फल हैं । अपने धर्म और संस्कृतिका पोषण करनेवाली शिक्षापद्धति लागू करने हेतु 'हिंदु राष्ट्र' आवश्यक ?

भ्रष्टाचार रोको, भारतको आदर्श राष्ट्र बनाओ ! 'ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी'द्वारा जारी आंकडोंके अनुसार १९४७ से २००८ की कालावधिमें भ्रष्टाचारके ४६२ अरब डॉलर (२५ लाख करोड रुपए) अवैध मार्गसे भारतके बाहर गए हैं । यह आंकडा अनुमानतः राष्ट्रीय उत्पादका ३० प्रतिशत भाग है । १. भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारियोंको रंगे हाथ पकडवानेके लिए 'भ्रष्टाचारविरोधी दल'की सहायता करें ! २. जनप्रतिनिधियोंको पत्र भेजकर भ्रष्टाचार और काले धनके विरुद्ध अधिनियम (कानून) बनाने हेतु आग्रह करें ! ३. काला धन भारतमें लानेके लिए योगगुरु प.पू. रामदेवबाबाद्वारा चलाए जा रहे आंदोलनोंमें सहभागी हों ! भारतीयोंका विदेशमें रखा काला धन वापस लाने हेतु चरित्रवान नेताओंका 'हिंदु राष्ट्र' स्थापित करें !

बहनो, पश्चिमी प्रथाएं त्यागो; प्रतिकारक्षम बनो ! देशमें प्रत्येक ३४ मिनटमें १ महिलाके साथ बलात्कार, ४२ मिनटमें १ महिलापर लैंगिक अत्याचार, ४३ मिनटमें १ महिलाका अपहरण और ९३ मिनटमें १ महिलाकी हत्या होती है ! बहनो, इन अत्याचारोंके प्रतिकार हेतु कटिबद्ध हों !! १. अपनी एवं अन्योंकी रक्षा हेतु लाठी, कराटे, नानचाकू जैसी 'स्वरक्षा' विद्याएं सीखें ! २. महिलाओंपर होनेवाले अत्याचारोंके लिए सर्वाधिक उत्तरदायी पाश्चात्य कुप्रथाओंके (उदा. 'रोज डे' प्रथाके, पाश्चात्य वेशभूषाके) अंधानुकरणका विरोध करें ! अश्लील विज्ञापन, चलचित्र, वेशभूषा, दूरदर्शनके धारावाहिक आदिके विरुद्ध वैध मार्गसे जनताका प्रबोधन करें ! आगामी 'हिंदु राष्ट्र'में 'पर-स्त्री मातासमान', यह भाव होगा; इससे पूरे विश्वकी महिलाएं सुरक्षित रहेंगी !

..........मातृ दिवस ........... मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया मेँ मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। समाज मेँ मां के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। 

जय श्री गणेश  __.-^-._  @(~?~)@  (,)( % )(,) ......... विघ्नहर्ता,मंगलकर्ता आप सब के जीवन में नूतन उत्साह का संचार करे समस्त विपत्तियों से आप सबकी और आपके परिवार की रक्षा करे...हे गणपति बप्पा सारी बुराइयो से दूर रख कर आप हमें अपने चरणों में स्थान दे...!!! !! गणपति बाप्पा मोरया ! !! मंगल मूर्ति मोरया !!

★Gσσδ★* 。 • ˚ ˚ ˛ ˚ ˛ •。★мояиíиб★ 。* 。 ˛ ° 。 ° ˚* _Π_____*。*˚ ˛ ˚ ˛ •˛•*/______/~\。˚ ˚˛ ˚ ˛ •˛• | 田田|門| ˚ ˚ ★ .............................!!!! ★ %%%%%%%%%%%%%%%% .̲̲.̲ •。•。•。•。•。•。•。•。•。 ┊  ┊  ┊  ┊ ┊  ┊  ┊  ★ ┊  ┊  ☆ ┊  ★ ☆ ♥ suprabhat ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥♥ ♥♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ Mangalam Jay shree ram

क्या खुब लिखा है किसी ने ..."बक्श देता है 'खुदा' उनको, ... ! जिनकी 'किस्मत' ख़राब होती है ... !! वो हरगिज नहीं 'बक्शे' जाते है, ... ! जिनकी 'नियत' खराब होती है... !! "न मेरा 'एक' होगा, न तेरा 'लाख' होगा, ... ! न 'तारिफ' तेरी होगी, न 'मजाक' मेरा होगा ... !! गुरुर न कर "शाह-ए-शरीर" का, ... ! मेरा भी 'खाक' होगा, तेरा भी 'खाक' होगा ... !! जिन्दगी भर 'ब्रांडेड-ब्रांडेड' करनेवालों ... ! याद रखना 'कफ़न' का कोई ब्रांड नहीं होता ... !! कोई रो कर 'दिल बहलाता' है ... ! और कोई हँस कर 'दर्द' छुपाता है ... !! क्या करामात है 'कुदरत' की, ... !' ज़िंदा इंसान' पानी में डूब जाता है और 'मुर्दा' तैर के दिखाता है ... !! 'मौत' को देखा तो नहीं, पर शायद 'वो' बहुत"खूबसूरत" होगी, ... ! "कम्बख़त" जो भी 'उस' से मिलता है,"जीना छोड़ देता है" ... !! 'ग़ज़ब' की 'एकता' देखी "लोगों की ज़मानेमें" ... ! 'ज़िन्दों' को "गिराने में" और 'मुर्दों' को "उठानेमें" ... !! 'ज़िन्दगी' में ना ज़ाने कौनसी बात "आख़री"होगी, ... ! ना ज़ाने कौनसी रात "आख़री" होगी । मिलते, जुलते, बातें करते रहो यार एक दूसरे से ना जाने कौनसी "मुलाक़ात" "आख़री होगी" ... !!

Friday, September 12, 2014

ख्वाहिश तो कर्जा लेकर भी पूरी हो जाती हैं फिर पूरी जिंदगी किश्तों में खो जाती है। ———- जिन्होंने महलों में रहकर गुजारी जिंदगी क्या वह समझेंगे वीरों के जंग की कहानी। ———– शरीक के जख्म तो जाते हैं कभी न कभी दिल का दर्द ऐसा लगता जैसे चोट हुई हो अभी अभी। ————– पूरी जिंदगी का बखान क्या करें यहां तो पल ही में माहौल बदल जाता हैll

संत कबीर वाणी-ज्ञानी और कवि बहुत, पर भक्त कम हैं..ll ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक। राम रता इंन्द्री जिता, कोटी मध्ये एक ll संत कबीरदास जी कहते हैं कि ज्ञान, ज्ञाता, विद्वान और कवि तो बहुत सारे मिले पर भगवान श्रीराम के भजन में रत तथा इंद्रियां जीतने वाला तो कोई करोड़ो में कोई एक होता है।  पढ़ते-पढ़ते जनम गया, आसा लागी हेत। बोया बीजहि कुमति ने, गया जू निर्मल खेत।।  संत कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और गुनते पूरा जन्म गुजर गया पर मन की कामनायें और इच्छायें पीछा करती रही। कुमति का बीज जो दिमाग के खेत में बोया उससे मनुष्य के मन का निर्मल खेत नष्ट हो गया। वर्तमान संदर्भ में संपाकदीय व्याख्या-आधुनिक शिक्षा ने सांसरिक विषयों में जितना ज्ञान मनुष्य को लगा दिया उतना ही वह अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया है। वैसे यह तो पुराने समय से चल रहा है पर आज जिस तरह देश में हिंसा और भ्रष्टाचार का बोलबाला है उससे देखकर कोई भी नहीं कह सकता है कि यह देश वही है जैसे विश्व में अध्यात्मिक गुरु कहा जाता है। आतंकवाद केवल विदेश से ही नहीं आ रहा बल्कि उसके लिये खादी पानी देने वाले इसी देश में है। इसी देश के अनेक लोग विदेश की कल्पित विचाराधारा के आधार पर देश में सुखमय समाज बनाने के लिये हिंसक संघर्ष में रत हैं। यह लोग पढ़े लिखे हैं पर अपने देश में वर्ग संघर्ष में समाज का कल्याण देखते हैं। अपने ही अध्यात्मिक शिक्षा को वह निंदनीय और अव्यवहारिक मानते हैं।  जहां हिंसा होगी वहां प्रतिहिंसा भी होगी। जहां आतंक होगा वहां राज्य को भी आक्रमक होकर कार्यवाही करनी पड़ती है। हिंसा से न तो राज्य चलते हैं न समाज सुधरते हैं। इतना ही नहीं इन हिंसक तत्वों ने साहित्य भी ऐसा ही रचा है और उनके लेखक-कवि भी ऐसे हैं जो हिंसा को प्रोत्साहन देते हैं।  सच बात तो यह है कि समाज पर नियंत्रण तभी रह सकता है जब व्यक्ति पर निंयत्रण हो। व्यक्ति पर निंयत्रण राज्य करे इससे अच्छा है कि व्यक्ति आत्मनियंत्रित होकर ही राज्य संचालन में सहायता करे। व्यक्ति को आत्मनिंयत्रण करने की कला भारतीय अध्यात्म ही सिखा सकता है। इसी कारण जिन लोगों के मन में तनाव और परेशानियां हैं वह भारतीय धर्मग्रंथों खासतौर से श्रीगीता का अध्ययन अवश्य करें तभी इस जीवन रहस्य को समझ पायेंगे।  ……………………………

मैले विचार वाला तन धोने से पवित्र नहीं होता ll !! !! !! ‘‘मनि मैले सभ किछु मैला तनि धोतै मनु हछा न होइ।‘ जिस मनुष्य के मन में कुविचार और मैल है वह पूरी तरह से स्वयं ही मैला है। चाहे कितना भी वह तन धो ले पर उसका पवित्र नहीं होगा। ‘‘जाकै बिनसिउ मन ते भरमा। ताकै कछु नाहीं डर जमा।।’’ जिस मनुष्य के मन में कोई भ्रम नहीं रहता उसे मौत का भी डर नहीं रहता।  ‘मनि जीतै जगु जीतु।‘ जिसने मन जीत लिया उसे सारा जग ही जीत लिया।  वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे अध्यात्म दर्शन में मनुष्य को मन का पंछी बताया जाता है। सच तो यह है कि मनुष्य एक आत्मा है पर देह में स्थित मन उसकी बुद्धि को अपने होने का आभास देता है। इस त्रिगुणमयी माया में मनुष्य का मन उसे इस तरह फंसाये रहता है कि उसकी बुद्धि को वही सच लगता है।  देह का अस्तित्व आत्मा से है पर मन उसे पशु की तरह हांकता चला जाता है और मनुष्य बुद्धि में यह अहसास तक नहीं होता। मन कभी साफ नहीं होता जब तक अध्यात्मिक ज्ञान या भक्ति से आदमी अपनी बुद्धि, मन और अहंकार पर नियंत्रण कर ले। लालच,लोभ,क्रोध और मोह के जाल में फंसा मनुष्य अपना अस्तित्व उस मन से ही अनुभव करता है जो कि उसकी देह का हिस्सा है। अगर कोई मनुष्य ईश्वर की भक्ति दृढ़ भाव से करे तो उसकी बुद्धि स्थिर हो जायेगी और फिर मन काबू में आयेगा। काबू में आने पर ही उसमें शुद्धता लायी जा सकती है वरना तो वह मनुष्य देह में मौजूद अहंकार को बढ़ाकर उसके बंधन में मनुष्य का बांध देता है और फिर पशु की तरह हांकता चला जाता है-मनुष्य को यही भ्रम रहता है कि मैं चल रहा हूं। इस प्रकार के भ्रम पर भक्ति और ज्ञान से विजय पायी जा सकती है अन्यथा नहीं।

सम्‍बन्‍धसूचकशब्‍दा: ।। >>> औरत --------- स्‍त्री, योषित्, नारी >>> गाभिन --------- गर्भिणी >>> चचेरा भाई --------- पितृव्‍यपुत्र: >>> चाचा --------- पितृव्‍य: >>> चाची --------- पितृव्‍यपत्‍नी >>> छोटा भाई --------- अनुज:, कनिष्‍ठसहोदर: >>> जमाई (दामाद) --------- जामातृ >>> जीजा (बहनोई) --------- आवुत्‍त:, भगिनीपति: >>> दादा --------- पितामह: >>> दादी --------- पितामही >>> दुश्‍मन --------- अरि:, रिपु:, शत्रु: >>> दूती --------- संचारिका, दूती >>> देवर --------- देवर: >>> देवरानी --------- यातृ (याता) >>> ननद --------- ननान्‍दृ (ननान्‍दा) >>> नाती --------- नप्‍तृ (नप्‍ता) >>> नाना --------- मातामह: >>> नानी --------- मातामही >>> नौकर --------- भृत्‍य:, प्रैष्‍य:, अनुचर: >>> नौकरानी ---------- परिचारिका >>> पति --------- पति: >>> पतिव्रता --------- साध्‍वी >>> पतोतरा (तरी) --------- प्रपौत्र:, प्रपौत्री >>> परदादा --------- प्रपितामह: >>> परदादी --------- प्रपितामही >>> परनाना --------- प्रमातामह: >>> परनानी --------- प्रमातामही >>> पिता --------- जनक: , पितृ (पिता) >>> पुत्र --------- पुत्र:, आत्‍मज: >>> पुत्री --------- पुत्री, आत्‍मजा >>> पोता --------- पौत्र: >>> पोती --------- पौत्री >>> फूआ --------- पितृष्‍वसृ (पितृष्‍वसा) >>> फूफा --------- पितृष्‍वसृपति: >>> फुफेरा भाई --------- पैतृष्‍वस्रीय: >>> बडा भाई --------- अग्रज: >>> बहिन --------- भगिनी, स्‍वसृ (स्‍वसा) >>> भतीजा --------- भ्रात्रीय:, भ्रातृपुत्र: >>> भतीजी --------- भ्रातृसुता >>> भानजा --------- स्‍वस्रीय:, भागिनेय: >>> भाभी (भौजाई) --------- भ्रातृजाया, प्रजावती >>> माता --------- मातृ (माता), जननी >>> मामा, मामी --------- मातुल:, मातुली >>> मालिक --------- स्‍वामी, प्रभु: >>> मित्र --------- वयस्‍य:, मित्रम्, सुहृद् >>> मौसा --------- मातृष्‍वसृपति: >>> मौसी --------- मातृष्‍वसृ (मातृष्‍वसा) >>> मौसेरा भाई --------- मातृष्‍वस्रीय: >>> यार --------- जार:, उपपति: >>> रंडा --------- विधवा, विश्‍वस्‍ता, रण्‍डा >>> रिश्‍तेदार (सम्‍बन्‍धी) --------- ज्ञाति:, बन्‍धु: >>> वृद्धपरनाना --------- वृद्धप्रपितामह: >>> वेश्‍या --------- गणिका, वारस्त्री, वेश्‍या >>> सखी --------- आलि:, वयस्‍या >>> सगा भाई --------- सहोदर: >>> समधिन --------- सम्‍बन्धिनी >>> समधी --------- सम्‍बन्धिन् >>> ससुर ---------- श्‍वशुर: >>> साला --------- श्‍याल: >>> सास--------- श्‍वश्रू: >>> सोहागिन --------- पुरन्ध्रि:, सौभाग्यवतीमामा, मामी --------- मातुल:, मातुली >>> मालिक --------- स्‍वामी, प्रभु: >>> मित्र --------- वयस्‍य:, मित्रम्, सुहृद् >>> मौसा --------- मातृष्‍वसृपति: >>> मौसी --------- मातृष्‍वसृ (मातृष्‍वसा) >>> मौसेरा भाई --------- मातृष्‍वस्रीय: >>> यार --------- जार:, उपपति: >>> रंडा --------- विधवा, विश्‍वस्‍ता, रण्‍डा >>> रिश्‍तेदार (सम्‍बन्‍धी) --------- ज्ञाति:, बन्‍धु: >>> वृद्धपरनाना --------- वृद्धप्रपितामह: >>> वेश्‍या --------- गणिका, वारस्त्री, वेश्‍या >>> सखी --------- आलि:, वयस्‍या >>> सगा भाई --------- सहोदर: >>> समधिन --------- सम्‍बन्धिनी >>> समधी --------- सम्‍बन्धिन् >>> ससुर ---------- श्‍वशुर: >>> साला --------- श्‍याल: >>> सास--------- श्‍वश्रू: >>> सोहागिन --------- पुरन्ध्रि:, सौभाग्यवती

ओ३म्  संस्कृत वाक्य अभ्यासः  ~~~~~~~~~`~~~~  हे प्रभो ! वयं तव भक्ताः = हे प्रभु , हम तुम्हारे भक्त  त्वां विना वयम् अशक्ता: = तुम्हारे बिना हम हैं अशक्त  वाञ्छामः तव अनुकम्पाम् = चाहते तुम्हारी अनुकम्पा  कुरु कुरु अस्माकं रक्षाम् = करो हमारी तुम रक्षा  वयं तु स्मः विकारपूर्णाः = हम तो सभी विकारपूर्ण हैं  त्वां विना सर्वे अपूर्णाः = तुम्हारे बिना हम अपूर्ण हैं  नाशय अस्माकं दोषान् = नाश करो सब दोष हमारे  उद्धारय आस्मान् दीनान् = हम दीनों का उद्धार करो  अहर्निशं वयं ध्यायामः = दिन औ रात हम करते ध्यान  जीवनशक्तिं विन्दामः = जीवन की शक्ति पाते हैं

Thursday, August 28, 2014

Subhashitani. ................!! यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् | एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति || अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |

Subhashitani. ................!! बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः | श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः || अर्थात् : जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ , धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है |

Subhashitani. ...................!! जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं , मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति | चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं , सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् || अर्थात्: अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है ,वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है | चित्त को प्रसन्न करता है और ( हमारी )कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है |(आप ही ) कहें कि सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती |

Om shree hanumate namah. ..............!! ओम् आंजनेयाय विद्मिहे वायुपुत्राय धीमहि | तन्नो: हनुमान: प्रचोदयात ||1|| ओम् रामदूताय विद्मिहे कपिराजाय धीमहि | तन्नो: मारुति: प्रचोदयात ||2|| ओम् अन्जनिसुताय विद्मिहे महाबलाय धीमहि | तन्नो: मारुति: प्रचोदयात ||3|| ओम् ह्रीं ह्रीं हूँ हौं हृ:........!!!

"नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्त्तुकामो सनकादिसिद्धादिनेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥".............. OM NAMAH SHIVAYA......!!!

Subhashitani. .....................! सुहृदि निरन्तरचित्ते गुणवति भृत्ये प्रियासु नारीषु | स्वामिनि शक्तिसमेते निवेद्य दुःखं जनः सुखी भवति || अर्थ - एक स्थिर चित्त और सहृदय मित्र से , अपने गुणवान सेवक से , अपनी प्रिय पत्नी तथा अपनी शक्तिसंपन्न स्वामिनी (मालिकिन) से अपने दुःखों को आदर पूर्वक व्यक्त करने से (उनसे मुक्त होने की राह उपलब्ध हो जाती है ) और वह् व्यक्ति अन्ततः सुखी हो जाता है | (गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है कि - 'धीरज धर्म मित्र अरु नारी आपातकाल परखिये चारी' )

Subhashitani. ...............! सुखस्य दु:खस्य कोऽपि न दाता परो ददाति इति कुबुद्धिरेषा । अहं करोमीति वृथाभिमान: स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोक:।। सुख या दुःख देनेवाला कोई भी नहीं होता। दूसरा कोई हमें यह देता है, यह विचार गलत है। "मैं करता हूँ", यह अभिमान गलत है। सभी अपने-अपने पूर्वजन्म के कर्मों से बन्धे हुए होते हैं।

पञ्चभिः सह गन्तव्यं स्थातव्यं पञ्चभिः सह | पञ्चभिः सह वक्तव्यं न दुःखं पञ्चभिः सह || अर्थ - यदि कहीं (शुभ कार्य के लिये ) जाना हो तो पांच व्यक्तिओं को एक साथ जाना चाहिये और पांच ही व्यक्तियों के निकट संपर्क में रहना चाहिये | पांच ही व्यक्तियों के साथ अन्तरंग वार्ता करनी चाहिये | इस प्रकार पांचों के साथ रहने से कभी दुःख नहीं होता है.| (सनातन धर्म में पांच की संख्या का बडा ही प्रतीकात्मक महत्व है | उदाहरणार्थ पांच तत्वो अग्नि,पृथ्वी ,वायु, जल और आकाश से मानव शरीर का निर्माण माना गया है , पांच प्रमुख देवता ,पांच ज्ञानेन्द्रियां (त्वचा,आंख, नाक, कान और जीभ ) , पांच कर्मेन्द्रियां (हाथ, पांव, गुप्तांग, कंठ और मल द्वार), पञ्चामृत देवताओं को अर्पित करने के लिये, समय सिद्धान्त के पांच अंग तिथि, वार, करण, नक्षत्र और योग को प्रदर्शित करने वाला पंचांग (भारतीय कैलेण्डर ) ,आयुर्वेद के अन्तर्गत पांच चिकित्सा पद्धतियां जिसे पंचकर्म कहते है,सिक्ख धर्म में पंच प्यारे , आदि | अतः इस सुभाषित में इसी महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है

IIकुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति॥ (Upar Jiska Ant Nahi Use Aasma Kahete Hai Jaha Mein Jiska Ant Nahi Use Maa kahte hain)........! !..................! मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया मेँ मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। समाज मेँ मां के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई।  एक औरत थी, जो अंधी थी, जिसके कारण उसके बेटे को स्कूल में बच्चे चिढाते थे, कि अंधी का बेटा आ गया, हर बात पर उसे ये शब्द सुनने को मिलता था कि "अन्धी का बेटा" . इसलिए वो अपनी माँ से चिडता था . उसे कही भी अपने साथ लेकर जाने में हिचकता था उसे नापसंद करता था.. उसकी माँ ने उसे पढ़ाया.. और उसे इस लायक बना दिया की वो अपने पैरो पर खड़ा हो सके.. लेकिन जब वो बड़ा आदमी बन गया तो अपनी माँ को छोड़ अलग रहने लगा.. एक दिन एक बूढी औरत उसके घर आई और गार्ड से बोली.. मुझे तुम्हारे साहब से मिलना है जब गार्ड ने अपने मालिक से बोल तो मालिक ने कहा कि बोल दो मै अभी घर पर नही हूँ. गार्ड ने जब बुढिया से बोला कि वो अभी नही है.. तो वो वहा से चली गयी..!! थोड़ी देर बाद जब लड़का अपनी कार से ऑफिस के लिए जा रहा होता है.. तो देखता है कि सामने बहुत भीड़ लगी है.. और जानने के लिए कि वहा क्यों भीड़ लगी है वह वहा गया तो देखा उसकी माँ वहा मरी पड़ी थी.. उसने देखा की उसकी मुट्ठी में कुछ है उसने जब मुट्ठी खोली तो देखा की एक लेटर जिसमे यह लिखा था कि बेटा जब तू छोटा था तो खेलते वक़्त तेरी आँख में सरिया धंस गयी थी और तू अँधा हो गया था तो मैंने तुम्हे अपनी आँखे दे दी थी.. इतना पढ़ कर लड़का जोर-जोर से रोने लगा.. उसकी माँ उसके पास नही आ सकती थी.. दोस्तों वक़्त रहते ही लोगो की वैल्यू करना सीखो.. माँ-बाप का कर्ज हम कभी नही चूका सकत.. हमारी प्यास का अंदाज़ भी अलग है दोस्तों, कभी समंदर को ठुकरा देते है, तो कभी आंसू तक पी जाते है..!!! "बैठना भाइयों के बीच, चाहे "बैर" ही क्यों ना हो.. और खाना माँ के हाथो का, चाहे "ज़हर" ही क्यों ना हो..!! !...........jay shree ram. .........!

(हरतालिका तीज व्रत कथा ) !.........!..........!..........!..........! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाले हरतालिका तीज व्रत कथानुसार मां पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पर्वतराज हिमालय पर गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया. इस दौरान उन्होंने अन्न का सेवन नहीं किया. कई अवधि तक शूखे पत्ते चबाकर काटी और फिर कई वर्षों तक उन्होंने केवल हवा पीकर ही व्यतीत किया. माता पार्वती के इस अवस्था को देखकर उनके पिता अत्यंत दुखी थे. इसी दौरान एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती के विवाह का प्रस्ताव लेकर मां पार्वती के पिता के पास पहुंचे, जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया. पिता ने जब मां पार्वती को उनके विवाह की बात बतलाई तो वह बहुत दुखी हो गई और जोर-जोर से विलाप करने लगी. फिर एक सखी के पूछने पर माता ने उसे बताया कि वह यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कर रही हैं जबकि उनके पिता उनका विवाह विष्णु से कराना चाहते हैं. तब सहेली की सलाह पर माता पार्वती घने वन में चली गई और वहां एक गुफा में जाकर भगवान शिव की अराधना में लीन हो गई. भाद्रपद तृतीया शुक्ल के हस्त नक्षत्र को माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया. तब माता के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिया और फिर माता के इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया. मान्यता है कि इस दिन जो महिलाएं विधि-विधानपूर्वक और पूर्ण निष्ठा से इस व्रत को करती हैं, वह अपने मन के अनुरूप पति को प्राप्त करती हैं...........! Om namah shivay. .........!!

Friday, August 15, 2014

..................Subhashitani. ................. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता.

Jsy shree ram
                   Pt.sushil mishra

...................Subhashitani. .................. स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः । स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥

Pt.sushil mishra
                      Jay shree ram

...............Subhashitani. .................. चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः | चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः || अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है |

Pt.sushil mishra

................Subhashitani. .................. श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन , दानेन पाणिर्न तु कंकणेन , विभाति कायः करुणापराणां , परोपकारैर्न तु चन्दनेन || अर्थात् :कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है |

Pt.sushil mishra

...............Subhashitani. ................. विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च | व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च || अर्थात् : ज्ञान यात्रा में ,पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है |

Jay shree ram

............jay shree ram............. आपके विचारों में होती है दिव्य-शक्ति हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों के वचनामृत हैं कि हमारे विचारों में एक दिव्य-शक्ति हुआ करती है| यही कारण है कि यह असाधारण और अलौकिक शक्ति हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व की परिचायिका है| अक्सर लोगों को कहते सुना है कि जैसा हम सोचते हैं वैसे ही हम बनते हैं पर कभी-कभी हम किसी अन्य व्यक्ति की विचारधारा से इतना अधिक प्रभावित हो जाते हैं कि हमारा व्यक्तित्व मात्र उसी व्यक्ति का प्रतिबिम्ब बन कर रह जाता है और कभी-कभी इसके विपरीत कोई अन्य भी हमारे विचारों से अत्यधिक प्रभावित हो जाता है |सच तो यह है कि हममें से कोई भी पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो कर विचार नहीं कर सकता क्योंकि हम अपने जीवन का प्रत्येक क्षण किसी न किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थिति अथवा परिस्थिति से प्रभावित हो कर ही व्यतीत करते हैं जिसके परिणाम स्वरुप हमारे विचारों का उद्गम या निर्माण होता है | वस्तुतः, हमारे विचारों में निहित वह दिव्य-शक्ति जो किसी भी विचार के हमारे मन में उदय होते ही उस विचार को कार्य रूप में परिणत करने के लिए तत्पर हो जाती है,वह है हमारे मन की संकल्प शक्ति | जब भी हमारे मन में कोई इच्छा उदय होती है या कोई विचार व्यक्त होता है तो यही संकल्प शक्ति पूरी ईमानदारी और स्वामिभक्ति के साथ मन के द्वारा दिये जाने वाले आदेश को पूरा करने के लिये तैयार हो जाती है | लेकिन अफ़सोस ! उसी क्षण हमारे अंतःकरण की सतह पर किसी दूसरी इच्छा की लहर विकल्प के रूप में आ खड़ी होती है और हमारे मन की वह संकल्प शक्ति अपना पहला काम अधूरा छोड़कर ,दूसरा आदेश पूरा करने में लग जाती है और यह चक्र चलता ही रहता है तथा हमारी यह दिव्य शक्ति लट्टू की तरह केवल घूमती ही रह जाती है | इस तरह पूर्ण सामर्थ्यवान तथा शक्तिमान होने के बावज़ूद भी हमारी यह संकल्प शक्ति हमारे संशयात्मक आदेश तथा विरोधी इच्छाओं के एक साथ उठ खड़े होने के कारण सफलता पूर्वक अपना कार्य नहीं कर पाती |इस तरह मानव-मन की संकल्प शक्ति की यह दुर्दशा होती है | दरअसल,हम अपने अज्ञान के कारण ही अपनी इस दिव्य शक्ति को कमज़ोर करते हैं |यदि हम केवल एक ही विचार को केन्द्र बनाकर मन में कोई इच्छा करें, उसमें आने वाली विरोधी इच्छाओं या विचारों पर नियंत्रण करें तो हमारी वह इच्छा ज़रूर पूरी होती है |भगवान श्रीकृष्ण ने भी श्रीमद्भगवद्गीता में ,अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है – ‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात् मतिभ्रम व्यक्ति विनष्ट हो जाया करता है|वस्तुतः, समाहित या एकाग्र-चित्त ही हमारे मन की गतिशीलता को स्थिर करता है और उचित मार्ग पर चलने के लिए दिशा-निर्देश करता है| तभी तो फलीभूत इच्छाओं के अनुरूप ही हमारा व्यक्तित्व ढलता है|उदहारण के लिए-आज यदि कोई व्यक्ति ए़क सफल वैज्ञानिक है तो ज़रूर उसने एक वैज्ञानिक होने की इच्छा को सदैव बल दिया होगा |अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रता का भाव बनाये रखकर ,उसे सम्पूर्ण करने के लिए विश्वास और ईमानदारी से प्रयास किए होंगे तथा बीच-बीच में विरोधी इच्छाओं के उदय से मानसिक-संतुलन को बिगड़ने नहीं दिया होगा | अंततः,यही कहना चाहती हूँ कि अपने सामान्य जीवन में भी, जब कभी हमें कोई साधारण सी भी अनुभूति,दिव्य-अनुभूति, सुखानुभूति या सौन्दर्यानुभूति होती है तो उसे हम किसी न किसी प्रकार समाज में व्यक्त करना चाहते हैं, किसी को बताना चाहते हैं या किसी के साथ अपने विचारों को बाँटना चाहते हैं तभी तो विभिन्न विषयों पर ज्ञान-विज्ञान के अनेक ग्रंथों के साथ-साथ प्रत्येक भाषा में कवि भी दिखाई देते हैं |दूसरे,यह भी तो हम चाहते हैं कि हमारी इच्छाएं पूरी होती रहें, तो बस हमें इतना ही तो करना है कि अपनी इस दिव्य-शक्ति, अपने मन की संकल्प शक्ति को एकाग्रता एवं स्वतंत्रता से काम करने दें अर्थात् अपनी ढेर सारी विरोधी इच्छाओं और अपने अनगिनत संशयों के भार से उसे मुक्त रखते हुए, हम एक समय में एक ही सद्-विचार पर केंद्रित होना सीख लें ताकि हमारे विचारों की सकारात्मक ऊर्जा सर्वत्र फैलती रहे और हमारी इच्छाएँ भी फलती-फूलती रहें और हम, यथाम्भव दूसरों को भी फलते-फूलते देखकर फूले न समायें |

Jay shree ram

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार | तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर || अर्थ : तुलसीदासजी कहते हैं कि हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी मणिदीप को रखो |

Jay shree rsm