Thursday, September 18, 2014

केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः न स्नानं न विलोपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः। वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता र्धायते क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥ ....... बाजुबंद पुरुष को शोभित नहीं करते और न ही चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, न स्नान, न चन्दन, न फूल और न सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई एक वाणी ही उसकी सुन्दर प्रकार से शोभा बढ़ाती है। साधारण आभूषण नष्ट हो जाते हैं, वाणी ही सनातन आभूषण है॥

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