Tuesday, November 18, 2014

क्रोधो मूलमनर्थानां  क्रोधः संसारबन्धनम्। धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥ Hindi Translation क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है,  इसलिए क्रोध को त्याग दें।

!! सत्य मेरी माता है, ज्ञान मेरा पिता !! ! Truth is my mother, Knowledge is father ! ..... सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा ! शांतिः पत्नी छमा पुत्रः खड़ेते मम बान्धवाः !! ..... सत्य मेरी माता है ज्ञान हैं पिता धर्म मेरा भाई है . मित्र है दया ! शांति है पत्नी पुत्र है क्षमा !! ये छ: मेरे बांधव हैं !!

Tuesday, November 11, 2014

नमस्कारः ! सुप्रभातम् !! आप सभी मित्रों का दिन शुभ एवं मंगलमय हो !! !! _/\_ II जय श्री राम !! हे सर्वप्रेरक! सवितः! अस्माकम् सर्वान् दोषान् दूरीकरोतु ।

Wonderful

आप सभी मित्रों का दिन शुभ एवं मंगलमय हो !! _/\_ II जय श्री राम !!

शुभ संध्या _/\_ GOOD EVENINGII जय श्री राम !! ....... ॐ सर्वेषां स्वस्तिर्भवतु । सर्वेषां शान्तिर्भवतु । सर्वेषां पूर्णं भवतु । सर्वेषां मङ्गलं भवतु !! ........

ॐ शिव ॐ शिव, परात्परा शिव ओङ्कार शिव तव शरणम् । नमामि शङ्कर भजामि शङ्कर उमामहेश्वर तव शरणम् ॥ ॐ नमः शिवाय ॥

श्री हनुमान जी और “ ऊँकार........!!!! !! ॐ श्री हनुमते नमः !! हनुमान जी और ऊँकार-एक ही तत्व माने गए हैं। जिस प्रकार निराकार ब्रह्म का वाचक साकाररूप के अनुसार ¬कार है, उसी प्रकार श्री हनुमान जी नाम परोक्ष रूप से ब्रह्मा-विष्णु शिवात्मक ‘ ऊकार का प्रतीक है। तांत्रिक ‘वर्णबीजकोश’ के अनुसार- - ह आकाशबीज है, जो ओंकार (अ+उ+म्) के प्रथम भाग अकार से गृहीत है। कोशशास्त्र में आकाश द्रव्य को विष्णु तत्व कहा गया है। - नु उ कार है, जो शिवतत्व का द्योतक है। - नाम के तृतीय भागमान् में ‘म’ एक भाग है जो बिन्दुनाद शून्य अनुस्वार का बोधक है। यह उपस्थ का बोधक है, जिसके देवता प्रजापति ब्रह्मा हैं। इस प्रकार समष्टिशक्ति रूप से ऊ ब्रह्म-विष्णु-महेश इन तीनों ही आदि कारण तत्वों का प्रतीक है। निष्कर्ष यह कि ‘ह-अ, न्-उ, म-त्-हनुमान-‘ओम्’ एकतत्व हैं। अतः हनुमान जी की उपासना साक्षात ¬-तत्वोपासना होने से परब्रह्म की ही उपासना हुई। जन्म-मृत्यु तथा सांसारिक वासनाओं की मूलभूत माया का विनाश ब्रह्मोपासना के बिना संभव नहीं। उस अचिन्त्य वर्णनातीत ब्रह्म का ही तो स्वरूप ऊकार है। इसी को दर्शनशास्त्र में ‘प्रणव’ नाम दिया गया है। ‘प्र’ का अर्थहै कर्मक्षयपूर्वक, ‘नव’ का अर्थ है नूतन ज्ञान देने वाला। ‘सत्यं ज्ञानमनत्रं ब्रह्म’ आदि श्रुति वाक्यों में ज्ञान को ही ब्रह्म कहा गया है। ‘प्रणव’ का भाव निर्देश और भी है। ‘प्र’ का भावहै प्रकृति से पैदा होने वाला संसाररूपी महासागर, और ‘नव’ का भाव है भवसागर से पार लगाने वाली नाव। एक और अर्थ है- ‘प्र’प्रकर्षण, ‘न’ अर्थात ‘वः’ अर्थात प्रणव अपने उपासकों कोमोक्ष तक पहुंचाने वाला है। हनुमन्नाम का शास्त्रीय आधार हन्+उन्=स्त्रीत्वपक्षे ऊँ-हन्+ऊड् =हन्+मतुय्= हनुमत् अथवा हनुमत = हनुमान या हनुमान्। ज्ञानिनाम् अग्रगण्यः - अग्रगन्ता यः स हनुमान। वाल्मीकि रामायण में हनुमन्नाम के दोनों रूप मिलतेहैं- भृत्यकार्य हनुमता सुग्रीवस्य कृतं महत्। (वा.रा. 6/1/6) तभियोगे नियुक्तेन कृतं क्त्यं हनुमता। (वा.रा. 6/1/10) ‘चम्पू रामायण’ में हन्कृत हनुमान के हनुमंग की कथा मिलती है। हनुमान जी ने विद्या से सूर्य का शिष्यत्व और जन्म से पवन का पुत्रत्व प्राप्त किया। वह इंद्र के वज्र-प्रहार से हनुभंग रूप चिह्न से युक्त हैं, और उन्हेंरावण के यशरूप चंद्रमा का शरीरधारी कृष्णपक्ष कहते हैं। परंतु ‘पद्मपुराण’ में हनुमान नाम के विषय में विचित्र कल्पना मिलती है- ‘हनुसह’ नामक नगर में बालक ने जन्म-संस्कार प्राप्त किया, इसीलिए वह ‘हनुमान’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हनुमान जी के विभिन्न विशेषण: अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्त वातजातं नमामि।। (मानस 5/श्लोक-3) श्री हनुमान का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका परिचय ऊपर वर्णित श्लोक में मिलता है। अतुलितबलधामम् अर्थात श्री हनुमान जी स्वयं तो बलवान हैं ही, दूसरों को बल प्रदान करने में भी समर्थ हैं। हेमशैलाभदेहम् का अर्थ है कि उनकी देह स्वर्णिम शैल की आभा के सदृश है। इसका भावार्थ है कि यदि व्यक्ति अपने शरीर तथा उसकी कांति को स्वर्णिम बनाना चाहता है तो उसे अपने आपको कठिनाइयों के ताप में तपाना चाहिए। दनुजवनकृशानुम् का अर्थ है राक्षसकुलरूपी वन के लिए अग्नि के समान। वह दनुजवत आचारण करने वालों को बिना विचार किए धूल में मिला देते हैं। ज्ञानिनामग्रगण्यम् अर्थात ज्ञानियों में सर्वप्रथम गिनने योग्य। भावार्थ यह कि वही व्यक्ति भगवान के चिर-कृपा-प्रसाद का अधिकारी हो सकता है जो निज विवेक-बल से अपने मार्ग में आने वाले विघ्नों को न केवल पराभूत करे, अपितु- उन्हें इस प्रकार विवश कर दे कि वे उसके बुद्धि-वैभव के आगे नतमस्तक हो उसे हृदय से आशीर्वाद दें। उसकी सफलता के लिए। सकलगुणनिधानम् अर्थात संपूर्ण गुणों के आगार, विशिष्ट अर्थ है दुष्ट के साथ दुष्टता और सज्जन के साथ सज्जनता का व्यवहार करने में प्रवीण। वानराणामधीशम् अर्थात वानरों के प्रभु। रघुतिप्रियभक्तम् अर्थात् भगवान श्री राम के प्रिय भक्त। वातजातम् अर्थात वायुपुत्र। भावार्थ यह कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मेंवही व्यक्ति सफल हो सकता है जोवायु की भांति सतत गतिशील रहे,रुके नहीं। मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम। वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये।। (श्री रामरक्षास्तोत्र 33) इस श्लोक में आए हुए तीन विशेषणों बुद्धिमतां वरिष्ठम्/वानरयूथमुख्यम्। तथा वातात्मजम् की व्याख्या ज्ञानिनामग्रणण्यम्/वानराणामधीशम् तथा वातजातम्के जैसी है। मनोजवम् अर्थात् मन के समान गति वाले। मारुत तुल्यवेगम् अर्थात् वायु के समान गति वाले। एक विशेषण है- श्रीरामदूतम्। भावार्थ यह कि प्रत्येक क्रिया में वे मन की सी गति से अग्रसर होते हैं, तथापि यह तीव्रगामिता केवल परहित-साधन अथवा स्वामी-हित-साधन तक ही सीमित है। वे मन के अधीन होकर ऐसा कोई कार्यनहीं करते जो उनकी महत्ता का विघातक हो, इसीलिए उनको जितेन्द्रियम् भी कहा गया है।श्री हनुमान-स्तुति श्री हनुमान जी की स्तुति जिसमें उनके बारह नामों का उल्लेख मिलता है इस प्रकार है: हनुमान×जनीसूनुर्वायुपुत्रोमहाबलः। रामेष्टः फाल्गुनसखःपिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः।। उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः। लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा।। एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः। स्वापकाले प्रबोधेच यात्राकाले च यः पठेत्।। तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्। (आनंद रामायण 8/3/8-11) उनका एक नाम तो हनुमान है ही, दूसरा अंजनी सूनु, तीसरा वायुपुत्र, चैथा महाबल, पांचवां रामेष्ट (राम जी के प्रिय), छठा फाल्गुनसख (अर्जुन के मित्र), सातवां पिंगाक्ष (भूरे नेत्र वाले) आठवां अमितविक्रम, नौवां उदधिक्रमण (समुद्र को लांघने वाले), दसवां सीताशोकविनाशन (सीताजी के शोक को नाश करने वाले), ग्यारहवां लक्ष्मणप्राणदाता (लक्ष्मण को संजीवनी बूटी द्वारा जीवितकरने वाले) और बारहवां नाम है-दशग्रीवदर्पहा (रावण के घमंड को चूर करने वाले) ये बारह नामश्री हनुमानजी के गुणों के द्योतक हैं। श्रीराम और सीता के प्रति जो सेवा कार्य उनके द्वारा हुए हैं, ये सभी नाम उनके परिचायक हैं और यही श्री हनुमान की स्तुति है। इन नामों का जो रात्रि में सोने के समय या प्रातःकाल उठने पर अथवा यात्रारम्भ के समय पाठ करता है, उस व्यक्ति के सभी भय दूर हो जाते हैं। !! ॐ श्री हनुमते नमः !!

!! ॐ श्री हनुमते नमः !! !! ॐ श्री हनुमते नमः !! !! बजरंग बाण !! !! भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग !! अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जप करते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान तथा शान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थित हनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें। हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकार के धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें। जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भी करते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भ करें। “श्रीराम–” से लेकर “–सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है। गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत का प्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हें कम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए। बजरंग बाण ध्यान श्रीराम अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं। दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं। रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।। दोहा निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान। तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।। चौपाई जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।। जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।। जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।। आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।। जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।। बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।। अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।। लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।। अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।। जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।। जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।। ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।। गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।। सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।। ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।। सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।। जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।। पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।। वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।। पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।। जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।। बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।। भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।। इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।। जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।। जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।। उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।। ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।। ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।। अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।। ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।। ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।। हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।। हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।। जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।। जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।। जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।। जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।। जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।। ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।। राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।। विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।। तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।। यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।। सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।। एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।। याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।। मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।। पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।। डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।। भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।। प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।। आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।। दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।। यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।। शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।। तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।। दोहा प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।। तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।। !! ॐ श्री हनुमते नमः !!